गुरुवार, 10 अक्टूबर 2024

कविता

 क्या लिखा जाए?

कुछ नहीं सुझाती

अंतर्चेतना तब

उठता है यह प्रश्न

और विवेक

लगता है ढूंढने

भावनात्मक आधार;


लिखी जाती है तब 

कविता मस्तिष्क से

गौण हो जाता तब

भाव

अधिकांश कविताओं का

ऐसा ही निभाव:


लिखे जाते हैं जब विचार

बौद्धिकता देती हुंकार

कथ्य पक जाते

भट्टे की ईंट की तरह

और भाव

हो जाते ठोस,

कविता नहीं जोश;


भावनाओं की डोरियों पर

फैलाए जाते हैं शब्द

तब उगती है कविता

कभी सूर्य से

कभी चाँद सी

और सिमट जाती है जिंदगी

तेल भरे बालों में

लाल फीता का

दो फूल सजाए

रोशनी सी।


धीरेन्द्र सिंह

11.10.2024

09.16


बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

बचना क्या

 बांध मन यूं रचना क्या

खाक होने से बचना क्या


लौ बढ़ी लेकर नव उजाला

दीप्ति में कितना रचि डाला

कोई सोचे यूं जपना क्या

खाक होने से बचना क्या


सर्जन की गति है अविरामी

सहज, सकल गति है ज्ञानी

कोई सोचे यूं ढहना क्या

खाक होने से बचना क्या


रीत जाता निर्माण समय संग

मिटना सत्य पर अथक मृदंग

कोई सोचे यूं कहना क्या

खाक होने से बचना क्या।


धीरेन्द्र सिंह

09.10.2024

13.11




सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

टप्प

 शांत सरोवर सा मन

अति मंद उठती

यादों की लहरें,

भावनाएं 

घने जंगल की

महुवा सा पसरे,

गुनगुनाता, बुदबुदाता

मन

भीतर ही भीतर फहरे;


सरोवर के किनारे

उगी हरी घास

झुंड में हो इकहरे,

पास की हलचलें

प्रकृति को निहारें

अपनी ही रीत भरे,

सरोवर सा मन

इन सबके बीच

सोचे धंसे गहरे;


एक बूंद टप्प

ध्वनि संग वलय

अनुभूति भाव दोहरे,

मुस्करा उठा सरोवर

तरंग बज उठी

कंपित जल कंहरे,

क्यों की वह याद

कोई ना फरियाद

सरोवर बस संवरे।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2024

13.52




रविवार, 6 अक्टूबर 2024

कौन जाने

 हृदय डूबकर नित सांझ-सकारे

हृदय की कलुषता हृदय से बुहारे

बूंदें मनन की मन सीपी लुकाए

हृदय मोती बनकर हृदय को पुकारे


इतनी होगी करीबी कुशलता लिए

आकुलता में व्याकुलता हँसि निहारे

कौंधा जाती छुवन एक अनजाने में

होश में कब रहें ओ हृदय तो बता रे


भाग्य से प्यार मिलता खिलता हुआ

मंद मंथर मुसाफ़िर मधुर धुन सँवारे

एक पवन बेबसी से दूरियां लय धरी

गीत अधरों पर सज नयन को दुलारे


यह कौन जागा हृदय भर दुपहरिया

आंच उनकी रही भाव मेरा जला रे

लिख दिया कौन जाने सुनेगी वह कब

हृदय गुनगुनाए मन झंकृत मनचला रे।


धीरेन्द्र सिंह

06.10.2024

13.08




शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

संजाल

 इंटरनेट के जंगल में

उलझा व्यक्ति

स्वयं को पाता व्यस्त

होकर मस्त,

कामनाएं 

फुदकती गौरैया सी

भटक चलती है तो

कभी ढलती है

मन को रखते व्यस्त,


गुजरते दिन लगे

जाते हैं भर

सुखभाव

करते निभाव और

बदलते स्वभाव

दौड़ते रहता है मन

कस्तूरी मृग सा,

लगे धमनियां बन चुकी

इंटरनेट संवाहक;


व्यक्ति

संजाल में

कर निर्मित जाल

जंगल हो गया है।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2024

09.28



मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

शब्द धमाका

जितना छपता है

क्या उतना

पढ़ा जाता है ?

लेखन और पाठक

हैं इतना-उतना,

जोड़ पाता है ?


अब लोग पढ़ते नहीं

देखते हैं

घटित सभी घटनाएं, 

शब्द झूठ बोलते लगें

लोग दृश्य को अपनाएं,

छूट रहे हैं शब्द

दृश्य ही अच्छा लगे

जग जैसे निःशब्द;


शब्दों का सन्नाटा ?

है गलत शोध

शोर कर रहे शब्द

ज्यों धमाका बोध,

शाब्दिक प्रत्याशा

थी ऐसी न भाषा,

किसको दें दोष

है सभी में जोश,

चेतना स्तब्ध

जग जैसे निःशब्द;


क्या है धमाका बोध ?

क्या शब्द का यह शोध ?

क्या है यह प्रतिरोध ?

किसका ?

भाषा का, संस्कृति का

एक सोच या प्रारब्ध 

हलचलें आबद्ध

कोई नहीं निःशब्द।


धीरेन्द्र सिंह

01.10.2024

20.47, पुणे




सोमवार, 30 सितंबर 2024

शब्द

 शब्दों में भावनाओं की है अदाकारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


किस तरह के अक्षरों से शब्द बनाए

किस तरह के शब्दों से हैं भाव रचाएं

सत्य कुछ असत्य बस शब्द चित्रकारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


बहुत श्रम लगता है शब्द को पकाना

बहुत कौशल चाहिए भाव शब्द सजाना

तब सजती रचना भर पाठक अंकवारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


दिल कहे दिमाग तौले शब्द तैरते हौले

भाव गूंथते शब्द थिरकते कथ्य बिछौने

अभिव्यक्त बन कुशल हो बहुअर्थ धारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी।


धीरेन्द्र सिंह

30.09.2024

17.47, पुणे