शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

हिंदी साहित्य

 कल्पनाओं के नभ तले शाब्दिक दुलार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


शौर्य और प्यार का है गहरा अटूट नाता

प्यार के बस छींटे लिखें शौर्य रह जाता

सीधे संघर्ष से पीछे हटता दिखें रचनाकार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


जिधर पढ़िए प्यार का टूटन, घुटन, मनन

बिना शौर्य प्यार कब निर्मित किया गगन

लगे लेखनी थकी-हारी लिए टूटा हुआ तार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार


बेबाकी से विगत का वही लेखकीय जुगत

हिंदी है पार्श्व में, भाषा क्रम सक्रिय जगत

परम्परा प्रति मोहित वर्तमान च्युत हुंकार

हिंदी साहित्य वर्तमान में सुप्त प्यार।


धीरेन्द्र सिंह

03.08.2024

10.42




औकात

 निभ जाने और सौगात की बात है

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


हर दृष्टि हर ओर से नापती पहले

हर सृष्टि हर पल ले साजती पहले

हर बुद्धि करे विश्लेषण जो नात हैं

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


हर कोई नापता, तौलता चले जीवन

हर कोई कांपता, हौसला करे सीवन

प्रभाव ऊंचे ही रहें करते हियघात हैं

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है


बदल चुका बहल रहा अब परिवर्तन

अपनी तरह जी लें कर नव संवर्धन

आवरण सहित स्वार्थ लक्ष्य साथ है

कुछ कहें, दीवाने औकात की बात है।


धीरेन्द्र सिंह

03.08.2024

08.09




गुरुवार, 1 अगस्त 2024

एडमिन

 एडमिन, मॉडरेटर संयुक्त यह समूह

पर किसी एक से स्पष्ट युक्ति समूल

रचना की सर्जना की प्रक्रिया समझ

अपनी प्रतिक्रिया देने में सुस्ती ना भूल


प्रेम यहीं हो जाता रचनागत संयोजन

एक के कारण लगे समूह सुगंधित फूल

रचनाकार हो पुलकित सर्जन नित करे

नित चाहे आत्मीयता और गहन अनुकूल


सिर्फ नाम परिचय शब्द निहित व्यक्तित्व

सर्जन की दुनिया का प्रोत्साहन समूल

ना जाने कब तक लहर नाव तादात्म्य

नित्य आप ही लगें दिग्दर्शक मस्तूल।


धीरेन्द्र सिंह

02.08.2024

08.35


हिंदी समूह

 यह समूह, वह समूह, कह समूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


नियमों की कहीं चटखती चिंगारियां

कहीं प्रतियोगिता की सुंदर क्यारियां

हिंदी मंथन से रच भावी नव व्यूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


उत्साहित करते कुछ समूह संचालक

वर्तमान में समूह भी हिंदी पालक

नई सोच नई खेप नवकल्पनाएँ दूह

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह


वर्तमान और पढ़े, नव कदम बढ़ें

समूह की सर्जना से, लेखन मढ़ें

अनप्रयोज्य अधिसंख्य प्रायः ढूर

हिंदी सकल समझ ले, बह समूह।


धीरेन्द्र सिंह

01.08.2024

13.56




बुधवार, 31 जुलाई 2024

प्यास

 प्यास की हैं विभिन्न परिभाषाएं

प्यास से अर्जित विजय पताकाएं


मन से हो संवाद होता निर्विवाद

मन को कर आयोजित हो नाबाद

अपने कौशल की विभिन्न कलाएं

प्यास से अर्जित विजय पताकाएं


आस हो तो प्यास फिर विश्वास

बिना लक्ष्य चलती कहां है सांस

फांस कहीं अटका समझ ना आए

प्यास से अर्जित विजय पताकाएं


प्यास की बात और तुम्हारी न बात

ऐसा न हो दुश्मन के भी साथ

आस ना रहे तो जी कैसे पाएं

प्यास से अर्जित विजय पताकाएं।


धीरेन्द्र सिंह

01.08.2024

11.04


सोमवार, 29 जुलाई 2024

सागर

प्रातः 7.30 बजे का सागर
मंद लहरों पर थिरकता
सावन की हवाओं संग जल
अपलक देखता
“अटल सेतु”
लगभग नित्य का दृश्य,

तट पर खड़ा
जल की असीमता से
अपनी असीमता की
करता रहा तुलना,
मन में विश्व या
विश्व में मन,
बोला विवेक रुक पल
बता तन में कितना जल,

नवजात को मातृ दुग्ध
मृत देह को गंगाजल,
शिव का जलाभिषेक
सागर से राम अनुरोध,
जलधारी सागर को समझ
अतार्किक ऐसा न उलझ,

आज सागर क्यों बोल रहा
नित सागर तट से
मुड़ जाते थे कदम,
बूंदे गयी थी थम
बदलियां इतरा रही थी,
तरंगित कर देनेवाली धुन
तट ने कहा सुन
और जिंदगी गुन,

मंद लहरों में भी
होती है ऊर्जा,
किनारे के पत्थरों से टकरा
अद्भुत ध्वनि हो रही थी
निर्मित,
निमित्त,
पल भर में लगा
लुप्त हो गए विषाद, मनोविकार,
अति हल्का होने की अनुभूति
स्थितिप्रज्ञ जैसी उभरी स्मिति,

तट के पत्थरों से टकरा
करती निर्मित विभिन्न धुन
जैसे कर रही हों वर्णित
जीवन की विविधताएं
और दे रही थीं संकेत
लहरें बन जाइए,
बाएं कान से कुछ
तो दाएं कान से कुछ
आती विभिन्न ध्वनियां,
संभवतः रही हों प्रणेता
अत्याधुनिक स्पीकर निर्माण प्रणेता,

तुम्हारी साड़ी की
चुन्नटों की तरह लहरें
मंद गति से उठ रही थीं
जहां कवित्व था लिए श्रृंगार
जैसे कसर रही हों निवेदन
उन्माद में छूना मत वरना
खुल जाएंगी चुन्नटें,
सागर में भी कितना
हया की अदा है,

लौट पड़ा घर को
मैंग्रोव या समुद्री घास के
बीच की कच्ची, पथरीली राह
जहां असंख्य चिड़ियों, पक्षियों का
संगीत एक किलोमीटर तक
यही बतलाता है कि
सागर से लेकर मैंग्रोव तक
सरलता, सहजता, संगीत साम्य
मानव तू सृष्टि सा स्व को साज।

धीरेन्द्र सिंह



39.07.2024

11.56





हताश

 खिड़कियां बंद कर रोक रहे हैं प्रकाश

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


प्रतिबंधन आत्मिक होता, नहीं भौतिक

विरोध वहीं जहां संबंध निज आत्मिक

ब्लॉक करने पर भी झलकता उजास

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


हृदय फूल खिलते जैसे खिलें जंगल

खिलना न रुक पाए हृदय करे दंगल

विरोध, प्रतिरोध ढक न पाए आकाश

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश


याद न आए जो समझिए गए हैं भूल

भुलाने का प्रयास जमाए गहरा मूल

यह है नकारात्मक वेदना प्यारा सायास

कमरा कैसे रोशन सोचे न वह हताश।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2024

09.07