गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

धर्मनिरपेक्ष

कभी अनुभव किया है आपने

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में

धर्म के स्पंदन,

होते हैं ऊर्जावान

नीतिवान

और सृष्टि संचयन में

निमग्न,


कभी देखा है आपने

धर्मों के धर्मपालक को

एक विशिष्ट रंग,

एक विशिष्ट ढंग,

एक अभिनव कार्यप्रणाली,

देते यथोचित उत्तर

यदि पूछे

कोई जिज्ञासू भक्त,


बदल दिए जाते हैं अर्थ

सार्थक अभिव्यक्तियों के,

चुपचाप बढ़ते पदचाप

और जतलाते हैं

वसुधैव कुटुंबकम को

विश्व जीतने का ख्वाब,

धर्म को दृढ़ता से

करना होगा स्थापित

अपनी परिभाषाएं,


अर्थ का अनर्थ न हो

अपने मन से क्यों अर्थ गढ़ो,

रोकता है धर्मनिरपेक्ष विचार,

नींव मजबूत है पर

होनी चाहिए सशक्त दीवार।


धीरेन्द्र सिंह

39.10.2025

19.33

अपने कदम

साथ कोई चलता नहीं, चले अपने कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीवन के अंकगणित में है जोड़ना-घटाना

लक्ष्य की चुनौतियों में प्रयास कष्ट घटाना

समझौतों की स्वीकार्यता कभी खुश तो सहम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


यदि बंधे नहीं मानव सहज न जी है पाता

एक भीड़ न हो परिचित जीवन लगे अज्ञाता

अपने को छोड़ सबसे जुड़ा लगे सशक्त कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीने की एक आदत को समझते हैं प्रायः प्यार

कितना चले कोई अगर छोड़ दे अपना पतवार

स्वार्थ अति महीन रूप में जाए पनपाते दहन

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम।


धीरेन्द्र सिंह

30.10.2025

19.25



बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

जरूरी है

 सुनो प्यार करने के लिए जानना जरूरी है

सितारे भरे आकाश हेतु जागना जरूरी है

सुलग गयी हृदय में भाव कुछ नई खिली

उस भाव से भी भागना कहो क्या जरूरी है


तुमसे मुझे प्यार है कहना नहीं है दबंगता

प्यार कसकर छुपा लें यह कैसी मजबूरी है

हृदय के स्पंदन कर रहें आपका अभिनंदन

चीख चिल्लाकर कहना प्यार क्या जरूरी है


हाँ जो बंध गए हैं बंधनों में समाज खातिर

ऐसे लोग नहीं मानव चर्चा क्या जरूरी है

व्यक्ति स्वयं के स्पंदनों संग जी ना सके तो

स्वतंत्र व्यक्ति नहीं वह उसकी बात अधूरी है


चंचल नहीं प्रांजल नहीं आदर्शवादिता नहीं

जीवन की सहज कामनाएं भी जरूरी है

सहज व्यक्ति सा सीमाओं संग उड़ रहे हैं

आप संग उड़ें ना उड़ें नहीं यह मजबूरी है।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2025

20.26


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

एक तुम

 चाहे तो जिंदगी समेट सब विषाद लें

चाहें तो बंदगी आखेट से प्रसाद लें

दर्द, दुख, पीड़ा की चर्चा समाज करे

चाहे तो हदबन्दगी में तुमसे उल्लास लें


व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी, पुरानी बात

प्रौद्योगिकी प्रमाणित जरूरी नहीं साथ लें

प्यार मनकों सा टूट रहा बिखर रहा बिफर

तृष्णा अपनी समझ परे फिर क्यों प्यास लें


चार लोग मिल गए उभर पड़ी वहां चतुराई

रंगराई की अंगड़ाई में तनहाई आजाद लें

तुरपाई की रीति निभाई बौद्धिक लुढ़कन

भौतिक ही यथार्थ का हितार्थ आस्वाद लें


कौन जिए उन्मुक्त घुटन की अनुभूतियाँ

एक तुम जिससे मनीषियों का नाद लें

सहज, शांत, सुरभित मिलने पर तुमसे

और कहीं भटकें तो परिस्थितियां विवाद दें।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2025

22.15


रविवार, 26 अक्टूबर 2025

पदचाप

जब हृदय वाटिका में गूंजे पदचाप तुम्हारे
टहनियां पुष्प की लचक अदाएं दिखलाती
कलियां खिल उठें मंद पवन सुगंधित चले
धमनियों में दौड़ पड़ो अलमस्त सी इठलाती

हृदय की धक-धक की पग लय जुड़ी थाप
सरगमी इतनी तुम कि धुन नई रच जाती
हृदय वाटिका झंकृत होकर झूमने लगता
पदचाप की छुवन अक्सर लगती मदमाती

आत्मा से आत्मा का प्यार अधूरा कथन है
देह से देह परिचय में नवरंग है झूम आती
आत्मिक परिणय की तुम हो जीवन संगिनी
हृदय वाटिका में बेहिचक नेह सी छा जाती।

धीरेन्द्र सिंह
27.10.2025
06.31

रिश्ते

 सूई की तरह चुभते हुए रिश्ते
खोखली मुस्कराहटों के किस्से
किस तरह बीच चलें अपनों के
कुछ तो अपने हों सबके हिस्से

घर, कुनबा वही स्थल पुरखों का
लोग बढ़ते गए लोग कहीं खिसके
खंडहर बन रहा है खानदानी घर
गांव खाली हवा गलियों में सिसके

सब के सब बस गए हैं पकड़ शहर
मिलना-जुलना भी जर्जर किस्म के
रिश्ता स्वार्थ बन गया है खुलकर
रिश्तेदारियां औपचारिक जिस्म के

यह परिवर्तन है स्वाभाविक दोष नहीं
यहां-वहां बिखरे सब अपने हित ले
एक घर में जितने हैं खुश रहें मिलकर
स्वार्थी रिश्तों में जान किस तिलस्म से।

धीरेन्द्र सिंह
26.10.2025
21.38


शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

मन उचटता है

 कल्पनाओं में वही सूरज उगता है

मन उचटता है


याद है प्रातः आठ बजे की नित बातें

ट्रेन दौड़ती स्टेशन छूटता है न यादें

मन बौराया वहीं अक्सर भटकता है

मन उचटता है


कैसे पाऊं फिर वही सुरभित सी राहें

कहां मिलेगी हरदम घेरे रसिक वह बाहें

कभी-कभी तड़पन देता आह उछलता है

मन उचटता है


अब भी बोलता मन है अक्सर भोर में

तुम क्या सुन पाओगी हो तुम शोर में

यादों की टहनी पर नया भोर तरसता है

मन उचटता है।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

07.11

पीयूष पांडेय

 शब्दों की थिरकन पर सजा भावना की आंच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


भारतीय विज्ञापन का यह गुनगुनाता व्यक्तित्व

सरल शब्दों में प्रचलित कर दिए कई कृतित्व

हिंदी को संवारे विज्ञापन की दुनिया में खांच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


हिंदी न उभरती न होती आज ऐसी ही महकती

विज्ञापन की हो कैसी भाषा हिंदी न समझती

जो लिख दिए जो रच दिए अमूल्य सब उवाच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


दशकों से हिंदी जगत में पीयूष की निरंतर चर्चा

इतने कम शब्दों में सरल हिंदी का लोकप्रिय चर्खा

आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा से हिंदी विज्ञापन दिए साज

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

05.41


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

भक्ति भाव

भक्ति में डूबी वह बोलीं

हम कुछ दूरी रखते हैं

मैंने कहा जिसे मन चाहा

हम तो करीबी रखते हैं


धन्यवाद कर प्रणाम इमोजी

बोलीं भाव कदर करते हैं

पढ़कर रहे सोचते  हम

भक्ति किसे सब कहते हैं


उन्होंने कहा करीबी गलत

खुद पर कंट्रोल रखिए

भक्ति कंट्रोल संग हो कैसे

अचल हैं क्या जी, कहिए


भक्ति में अब भी लिंगभेद

पुरुष-स्त्री विभक्त रहिए

मन कहां वश में जानें

साधना और गहन करिए।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2025

18.41

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

प्रेम और प्यार

  ईश्वर की कामना की जितनी अभिलाषा
 मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा  

मंदिरों के विग्रह भक्ति, आस्था, समर्पण                                       जीव वहां जाता श्रद्धा देती स्नेहिल दर्पण
देवी-देवता से प्यार नहीं प्रेम सबल नाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्रेम अति व्यापक अलौकिक अनुभूति है
प्यार अति सूक्ष्म लौकिक जन रीति है
आत्मसंवेदनाओं का है जो चपल ज्ञाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्यार करते-करते प्रेम भी दीप्त हो जाता
प्रेम करते-करते लीन होना ही हो पाता
मानव से करो प्यार वही है सफल खासा
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा।

धीरेन्द्र सिंह
23.10.2025
18.56

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

सामर्थ्य

प्यार कहे बोल दे पर बोल भी नहीं पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

हर गगन में चांद की अठखेलियाँ ही लगें
तारों के बीच भी बादल बहेलियां ही लगें
चांदनी की शीतलता हवा को भी भरमाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम अतीत तुम व्यतीत तुम ही तो मेरे मीत
भावनाएं गुनगुनाती शब्द सज बनते हैं गीत
कौन तुमसे जुड़कर भी मुडकर बहक पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम कब एक व्यक्तित्व में समा जानेवाली
तुम एक तरंग हो महत्व की दिया बाती
तुमको सोचे तुमको जिए तुमको ही गाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए।

धीरेन्द्र सिंह
22.10.2025
00.10

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

मझधार

पहले द्वार रंगोली और द्वार श्रृंगार
फिर दिया, पूजन भक्त भक्ति दुलार
लौ की दुनिया सज गई ऊर्जा लेकर
दिया हो सक्रिय निःशब्द देता आधार

कितनी पूजा किसने की ईश्वर जानें
आरती में किसका कितना लयधार
इन बातों से अलग सोचती आराधना
जनमानस का कितना कैसे हो सुधार

अपनी अभिव्यक्ति को पूर्ण कर चुका
लगता कुछ शेष नहीं रुकी वही पुकार
खड़ा हो गया सोचता नव ज्योति लिए
जबतक है जीवन खत्म कहां मझधार।

धीरेन्द्र सिंह
20.10.2025
21.39



रविवार, 19 अक्टूबर 2025

छोटी दीवाली

देहरी पर दिये की झूम रही लौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

शुभता भी शक्ति है दिव्य आसक्ति
शुभ्रता मनभाव लिये नव्य युक्ति
ठहरी क्रन्दिनी वंदिनी हस्त भरे जौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

छोटी दिवाली की रात्रि दीप पटाखे
ब्रह्मोस्त्र की खेप बुद्धि मीत सखा रे
सीमाएं रहें शांत सुखी ना टेढ़ी भौं
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

मेरे पड़ोसी मुस्लिम घर जलीं लड़ियाँ
निकलें बाहर मिल जलाएं फुलझड़ियाँ
अनेकता में एकता लौ को गुण सौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव लौ।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
21.41




अस्तित्व उदय

उदित होता अस्तित्व
होता हरदम सिंदूरी
उदित गोद में हो
या हो समय की दूरी

प्रसन्नता हो अपरम्पार
द्वार किरण मनधूरि
एक उल्लास मिले खास
एक तलाश हो पूरी

दीये की लौ नर्तन
बर्तन बजते बन मयूरी
दिवस प्रारम्भ ले आशाएं
परिवेश सजा है सिंदूरी

उदित हो जाना जीवन
सज्जित समुचित लोरी
प्यार कहीं आराधना भी
कामना होती तब पूरी।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
14.35




शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

धनतेरस

सांध्य बेला हो चुकी प्रकाश में बदले बेरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


अत्यावश्क हुई खरीद भक्ति भाव अविरल

कथ्यों पर युग बढ़ चला होता भाव विह्वल

आस्था जीवन को मढ़ी हर पीड़ा कर बेबस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


समरसता की दृष्टि निरंतर होती विकसित

भारत भूमि इसीलिए जग करे आकर्षित

धन-धान्य सुख-वैभव की प्रसारित कर रस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


दिया लौ द्वार से लेकर  घर के कोने-कोने

हर घर में खुशियां छलकाए नयन-नयन दोने

जो भी कामना आशीष देकर ईश्वर प्रेम बरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस।


धीरेन्द्र सिंह

18.10.2025

20.06




शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

जगमगाते


जगमगाते दीपों की तैयारी है
झालरों में ज्योति अँकवारी है
बाती बनकर दीप में सज जाइए
ज्योतिपुंज प्रबल अति न्यारी है

भींग जाने दो दिया जल में अभी
कुम्हार कौशल आपकी बारी है
केवट चरण पखार पाए मुक्ति द्वार
दीपमालाएं सजें विश्वकारी हैं

स्वच्छ चहक किलके चहारदीवारी
ज्योतिपुंज प्रज्ज्वलन गुणकारी है
तमस दूर हो समझ में होए वृद्धि
उत्सवी परिवेश समृद्धिकारी है

देहरी की प्रथम लौ झूम धाए
दिया लिए प्रकाश चमत्कारी हैं
बाती बन आप दिए से जुडें तो
इससे बड़ा कौन हितकारी है।

धीरेन्द्र सिंह
17.10.20२5
19.35




गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

कुछ नहीं आता

व्यक्ति में बौद्धिक सक्रियता सोचे विद्व ज्ञाता
दिवाली हेतु सफाई में सुने कुछ नहीं आता

हर घर दीप पर्व नाते घर में करे साफ-सफाई
मैंने भी सोचा सहयोग देकर पाऊं खूब बड़ाई
रसोई को खाली करने में श्रमदान का इरादा
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

कांच के बर्तन घेरे रख दिए थे कई ढंग बर्तन
चादर बिछी थी खिसकी शोर संग किए नर्तन
कुछ कांच टूटा सुना ऐसा सहयोग किसे भाता
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

पेशेवर सफाई कर्मी लेकर घर पहुंचे संग समान
सीढ़ी अलावा चढ़ने को कुछ मांगे ऊंचा स्थान
झट रिवॉल्विंग चेयर दे बोला सब इससे हो जाता
पेशेवर की थी अस्वीकृति लगा कुछ नहीं आता

शाम के सात बजे दो घंटे से सिर्फ किचन सफाई
तीन बाथरूम अभी पड़े हैं समय दे रहा दुहाई
उत्साह में दर्शाया रसोई व्यवस्थित की जिज्ञासा
कौन सामान कहां रहेगा बोले कुछ नहीं आता

क्लीनिंग पेशेवर लगे बैठा सोचा संगी कविता
घर को रखे व्यवस्थित मात्र गृहिणी की रचिता
सात बजे रहे हैं लगे रसोई में दो सफाई ज्ञाता
इस दीपावली ने दिया संकेत कुछ नहीं आता।

धीरेन्द्र सिंह
16.10.2025
07.03
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover
#public

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

विकल्पविकल्प

विकल्प जब अनेक हों
संकल्प प्रखर सम्मान रहे
रचनाएं तो मिले बहुत
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आहत

आहत होने के लिए
कोई व्यक्ति
नहीं चाहिए
प्रायः व्यक्ति
होता है आहत
स्वयं से,
कैसे?

संवेदनाओं के संस्कार
परंपराओं के द्वार
बना लेती हैं
अपना कार्ड आधार
संस्कारों का
शिक्षा का, दीक्षा का
और लगती हैं देखने
दृष्टि समाज को
अपने 
संस्कार आधार कार्ड से,

दूसरे का दर्द,
परिस्थिति
न समझ पाना
और हो जाना
नाराज
कुपित
दुखी
होकर आहत,
कभी सोचा
सामने व्यक्ति को
मिली क्या राहत ?
अपनी ही सोचना,
है न!

धीरेन्द्र सिंह
14.10.2025
11.36


रविवार, 12 अक्टूबर 2025

व्यक्तिवादी

व्यक्तिवाचक रचना से बिदक जाते हैं
साहित्य पाठक भी क्यों ठुमक जाते है 

आदर्शवादिता लगे उनकी धरोहर है
कैसे लेखन ऐसे में ना दहक पाते है 

प्रथम पुरुष में लिखना क्या गलत है
बेमतलब का मतलब लहक जाते हैं

चरित्र चाल कर रखने की चीज कहां
जो लिखते हैं चालकर लिख पाते हैं

एक दीवार तक लेखन को जोडनेवालों
जो लिखते हैं उसी भाव महक जाते है 

प्रणय रचना को प्रस्ताव समझना कैसा
क्यों रचना में व्यक्तिवादी झलक पाते हैं

भाव दबाकर लिखें आपातकाल है क्या
साहित्य रचते जो यथार्थ कुहुक जाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
13.10.2025
12.23

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

एक कल्पना

में यदि हूँ कहीं
ढूंढो यहीं कहीं
कह रहा इसलिए
सुन लिया बतकही

मत पूछो मेरा पता
व्योम धरा है ज़मीं
यह स्व उन्माद नहीं
होती सब में कमी

रात्रि प्रहर में सोचना
चाहतों की है नमी
सोचता मन आपको
दिखती नहीं कभी।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.202
22.02

स्तब्धता

 प्रेम पगता है मगन मन मेरे
और तुम पढ़ रही मेरी कविता
शब्द में भावनाओं का मंथन
कब समझोगी हो तुम ही रचिता

तुम्हारे स्पंदनों में हूँ मन साधक
और तुम कल्पनाओं की संचिता
एक परिचित नाम ही बन सका
कभी क्या लगता हो तुम वंचिता

प्रणय के पालने में रहा झूल हृदय
तुम्हारी आभा की पाकर दिव्यता
पहल अब और कितना हो कैसे
आओ न मिल रचें कई भव्यता

नई अनुभूतियों पर धुन बने नई
राग तो तुम हो करो आलापबद्धता
तुम हवा सी गुजर जाती हो छूकर
बाद देखी हो क्या मेरी स्तब्धता।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.2025
20.41
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover



तटस्थ

तटस्थ हो घनत्व को सदस्य दीजिए
निजता है पल्लवित राजस्व दीजिए
गुटबंदियां चापलूसी में हैं सन रही
कितने छोड़ रहे साथ महत्व दीजिए

अपने में दम तो बातों का क्या वहम
कारवां में सब एक यह कृतित्व कीजिए
रिश्तेदारी की खुमारी है तब दुश्वारी
जब प्रियजन समूह हैं व्यक्तित्व दीजिए

प्लास्टर लगे उखड़ने किसका प्रभाव है
किसका प्रभुत्व है यह तत्व उलीचिए
कुछ ईंटें सरकी हैं बात हद में ही है
दीवारों की खनक रहे शुभत्व कीजिए

कुछ टूट रहा है कुछ छूट रहा है
क्या कुछ लूट रहा है संयुक्त कीजिए
निर्भीकता से बोलता साहित्य हमेशा
मर्जी आपकी भले अलिप्त कीजिए।

धीरेन्द्र सिंह
10.11.2025
17.16

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

देवनागरी

 एक सदाचार धारक व्यक्ति

अतिभ्रष्ट देश में जन्म ले

वह क्या कर पाएगा

तिनके सा बह जाएगा,

आश्चर्य

काव्य में उभरा

राजनीतिक नारा,

सभ्यता सूख रही

राजनीति ही धारा ;


हिंदी साहित्य भी

क्या राजनीति वादी है

सदाचार गौण लगे

राजनीति हावी है ;


कौन कहे, कौन सुने

अपनी पहचान धुने

समूह राजनीति भरे

मंच भी अभिमान गुने,

करे परिवर्तन

राजनीति करे मर्दन,

हिंदी उदासी है

नई भाषा प्रत्याशी है ;


देवनागरी लेखन की अंतिम पीढ़ी

अदूरदर्शी चिल्लाते हिंदी संवादी

भारतीय संविधान पढ़ लें तो

ज्ञात हो है हिंदी विवादित।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

19.19



गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

गमन

गमन


वादियां

यदि प्रतिध्वनि न करें

नादानियाँ

यदि मति चिन्हित न रखें

कौन किसे फिर भाता है

मुड़ अपने घर जाता है


मुनादियाँ

यदि अतिचारी हों

टोलियां

यदि चाटुकारी हों

कौन पालन कर पाता है

मौन चालन कर जाता है


जातियां

यदि पक्षपात करें

नीतियां

यदि उत्पात करें

कौन सहन कर पाता है

मार्ग गमन कर जाता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

11.50




कोहराम

कोहराम है जीवन आराम कब करें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें 


सब ठीक है ईश्वर की कृपा बनी है

कैसे कहे मन की अपनों में ठनी है

विषाद भरा मन अधर क्षद्म मद भरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अभिभावक, दम्पत्ति भी करें अभिनय

सामाजिक दायरै में दिखावे का विनय

संतान देख परिवेश उसी ओर डग भरें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अपवाद कभी भी नियम नहीं होता

मुक्ति कहां देता कलयुग का गोता

वैतरणी कब मिलेगी है जग डरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें।


धीरेन्द्र सिंह

19.12

09.10.2025



#कोहराम#मुस्कराएं#दम्पत्ति#वैतरणी


बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

तृष्णा

आपके व्यक्तित्व में ही अस्तित्व

निजत्व के घनत्व को समझिए

अपनत्व का महत्व ही तो सर्वस्व

सब कुछ स्पष्ट और ना उलझिए


प्रपंच का नहीं मंच भाव जैसे संत

शंख तरंग में भाव संग लिपटिए 

हृदय के स्पंदनों में धुन आपकी

निवेदन प्रणय का उभरा किसलिए


आप ही से क्यों जुड़ा मन बावरा

दायरा वृहद था आपको जी लिए

आप समझें या न समझें समर्पण

अर्पण कर प्रभुत्व को तृष्णा पी लिए।


धीरेन्द्र सिंह

09.10.2025

06.35

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

मन

 मन की अंगड़ाईयों पर मस्तिष्क का टोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


तरंगों की चांदनी में प्रीत की रची रागिनी

शब्दों में पिरोकर उनको रच मन स्वामिनी

नर्तन करता मन चाहे बजे प्रखर हो ढोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


अभिव्यक्त होकर चूक जातीं हैं अभिव्यक्तियाँ

आसक्त होकर भी टूट जाती हैं आसक्तियां

यह चलन अटूट सा लगता कभी बस पोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


यह भी जाने वह भी माने प्रणय की झंकार

बोल कोई भी ना पाए ध्वनि के मौन तार

कहने-सुनने की उलझन मन का है किल्लोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

21.26

#मन#चांदनी#उमड़-घुमड़#प्रणय#किल्लोल

सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

अभिनय

 अभिनय


अपूर्णता सुधार में सर्जक बन क्षेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


हम सब स्वभावतः अभिनय दुकान हैं

जितना अच्छा अभिनय उतना महान है

कामनाएं पूर्ति में सजग प्रयास की नेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


अब कहाँ सामर्थ्य बिन आवरण बहें

असत्य को सत्य सा प्रतिदिन ही कहें

बौद्धिक हैं विकसित हैं मानवता गोत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


क्षद्म रूप विवशता है जग की स्वीकार्य

स्वार्थ ही प्रबल दिखावा कुशल शिरोधार्य

समाज प्रगतिशील हैं व्यक्ति बंद छतरी

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

04.31

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

आँधियाँ

आँधियाँ


प्रतिदिन दुख-सुख की आंधियां हैं

व्यक्ति तैरता समय की कश्तियाँ हैं

रहा बटोर अपने पल को निरंतर ही

कहीं प्रशंसा तो कहीं फब्तियां हैं


अर्चनाएं टिमटिमाती जुगनुओं सी

कामनाओं की भी तो उपलब्धियां हैं

हौसला से फैसला को फलसफा बना

दार्शनिकों सी उभरतीं सूक्तियाँ हैं


जूझ रहा हवाओं से लौ की तरह

पराजय में ऊर्जा की नियुक्तियां हैं

अपना जीवन रंग रहा बहुरंग सा

रंगहीन हाथ लिए कूंचियाँ है


अर्थ कभी सम्बन्ध तो मिली उपलब्धि

जिंदगी बिखरी इनके दरमियाँ हैं

वही नयन आज भी उदास से हैं

सख्ती बढ़ रही अब कहाँ नर्मियाँ हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2025

16.39



शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

तख्तियां

अपनी अभिव्यक्तियों की आसक्तियां हैं

कैसे रोकें कि कई नियुक्तियां हैं

हृदय में किसने कहा है रिक्तियां

अनेक लिए आग्रह तख़्तियाँ है


कई विकल्प लुभाने को हैं आतुर

वश में कर लिए उनके दरमियाँ हैं

कहीं तो ठंढी सांसे ढूंढें सरगम

चलन चहक उठा बढ़ी गर्मियां है


कई चिल्ला रहे बढ़ता हुआ शोर है

जो हैं समर्थ उनकी मनमर्जियाँ है

अलाव हथेलिगों में लेकर चल पड़े

पड़नेवाली गजब की जो सर्दियां है।


धीरेन्द्र सिंह

03.10.2025

14.41



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

चाहत

चाहता कौन है पता किसको 
धड़कनें सबकी गुनगुनाती हैं
चेहरे सौम्य शांत प्रदर्शित होते
मन के भीतर चलती आंधी है

एक ठहरे हुए तालाब सा स्थिर
जिंदगी तलहटों में कुनकुनाती है
तट पर हलचल की अभिलाषी
लहरें उमड़ने की तो आदी हैं

स्वभाव विपरीत जीना है यातना
जिंदगी यूँ तो सबकी गाती है
निभाव खुद से खुद करे जो
चाहतें वहीं महकती मदमाती हैं।

धीरेन्द्र सिंह
03.10.2025
07.35

सोमवार, 22 सितंबर 2025

 हिंदी के सिपाही - गौतम अदाणी


अदाणी समूह के चेयरमैन गौतम अदाणी दिनांक 22 सितंबर 2025 को एक निजी चैनल पर लाइव थे। आज रुककर अदाणी को सुनने का मन किया इसलिए चैनल नहीं बदला। अंग्रेजी में चार-पांच वाक्य बोलने के बाद अंग्रेजी में बोले गए वाक्यों को अदाणी ने हिंदी में कहा वह भी काव्यात्मक रूप में। यह सुनते ही स्क्रीन पर मेरी आँख ठहर गयी। अदाणी ने फिर अंग्रेजी में कहा और भाव और विचार को काव्यात्मक हिंदी में प्रस्तुत किये। ऐसा चार बार हुआ। आरम्भ से नहीं देख रहा था अचानक चैनल पर टकरा गया था।


सत्यमेव जयते कहकर अदाणी ने अपना संबोधन पूर्ण किया और मैं तत्काल इस अनुभूति को टाइप करने लगा। हिंदी दिवस 14 सितंबर को अपनी महत्ता जतलाते और विभिन्न आयोजन करते पूर्ण हुआ किन्तु इस अवधि में कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं मिला जिसे टाइप करने की अब जैसी आतुरता जागृत हुई हो। अंग्रेजी में बोलनेवाले किसी भी चेयरमैन को अंग्रेजी और फिर काव्य में उसी भाव को दो या अधिकतम चार पंक्तियों में बोलते अदाणी से पहले किसी को नहीं देखा।


क्यों टाइप कर रहा हूँ इस अनोखी घटना को ? एक श्रेष्ठतम धनाढ्य गौतम अदाणी हैं इसलिए ? यह सब नहीं है इस समय विचार में बस हिंदी है। हिंदी यदि अदाणी जैसे चेयरमैन की जिह्वा पर काव्य रूप में बसने लगे तो हिंदी कार्यान्वयन में इतनी तेजी आएगी कि स्वदेशी वस्तुओं पर स्वदेशी भाषा और विशेषकर हिंदी होगी। एक सुखद संकेत मिला और लगा हिंदी अपना स्थान प्राप्त कर भाषा विषयक अपनी गुणवत्ता को प्रमाणित करने में सफल रहेगी। मैंने चेयरमैन गौतम अदाणी के मुख से अपने संबोधन में कई बार हिंदी कविता का उपतोग करने की कल्पना तक नहीं  थी। 


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2025

15.37

रविवार, 21 सितंबर 2025

शारदेय नवरात्रि

 आज प्रारंभ है अर्चनाओं का आलम्ब है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


अपनी-अपनी हैं विभिन्न रचित भूमिकाएं

श्रद्धा लिपट माँ चरणों में आस्था को निभाए

नव रात्रि नव रूप माता का निबंध है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


सनातन धर्म जीवन मार्ग सज्जित बतलाएं

नारी का अपमान हो तो कुपित हो लजाएं

नवरात्रि नव दुर्गा आदि शक्ति ही अनुबंध हैं

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है


माँ का आक्रामक रूप राक्षस संहार के लिए

मनुष्यता में दानवता भला जिएं किसलिए

नारी ही चेतना नारी शक्ति भक्ति आलम्ब है

शारदेय नवरात्रि यूं मातृशक्ति का दम्भ है।


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2025

07.54

कहीं भी रहो

 सुनो, मेरी मंजिलों की तुम ही कारवां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


वह भी क्या दिन थे जब रचे मिल ऋचाएं

तुम भी रहे मौन जुगलबंदी हम कैसे बताएं

मैं निरंतर प्रश्न रहा उत्तर अपेक्षित बयां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


सर्द अवसर को तुम कर देती थी कैसे उष्मित

अपनी क्या कहूँ सब रहे जाते थे हो विस्मित

श्रम तुम्हारा है या समर्पण रचित रवां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो


वर्तमान भी तुम्हारी निर्मित ही डगर चले

कामनाओं के अब न उठते वह वलबले

सब कुछ पृथक तुमसे फिर भी दर्मियां हो

तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2025

22.27

शनिवार, 20 सितंबर 2025

पितृपक्ष

 संस्कार हैं संस्कृति, हैं मन के दर्पण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


रक्त में व्यक्त में चपल चेतना दग्ध में

शब्द में प्रारब्ध में संवेदना आसक्त में

दैहिक विलगाव पर आत्म आकर्षण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


पितृपक्ष नाम जिसमें सभी बिछड़े युक्त

देह चली जाए पर लगे आत्मा संयुक्त

भावना की रचना पर हो आत्मा घर्षण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण


मनुष्यता उन अपनों के प्रति है कृतज्ञ

आत्मा उनकी शांत मुक्ति का है यज्ञ

श्रद्धा भक्ति से उनके प्रति है समर्पण

उन अपने स्वर्गवासियों का है तर्पण।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2025

06.40


शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

दर्पण

 सत्यस्वरूपा दर्पण मुझे क्या दिखलाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


सृष्टि में बसे हैं भांति रूप लिए जीव

दृष्टि में मेरे वही प्रीति स्वरूपा सजीव

प्रतिबिंबित अन्य को तू ना कर पाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


मानता हूँ भाव सभी निरखि करें अर्पण

जीवन अनिवार्यता तू भी है एक दर्पण

क्या इस आवश्यकता पर तू इतराएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा


हो विषाद मन में रेंगता लगे है मन

दर्पण में देखूं तो तितली रंग गहन

अगन इस मृदुल को तू कैसे छकाएगा

नयन बसी छवि मेरी वही तो जतलाएगा।


धीरेन्द्र सिंह

29.09.20२5

09.10




मात्र प्रकृति नहीं

मात्र प्रकृति नहीं


सूर्य आजकल निकलता नहीं

फिर भी लग रहा तपिश है

बदलितां भी ढक सूर्य परेशान

बेअसर लगे बादल मजलिस है


सितंबर का माह हो रही वर्षा

यह क्या प्रयोग वर्ष पचीस है

जल प्रवाह तोड़ रहा अवरोध

दौड़ पड़े वहां खबरनवीस हैं


बूंदें बरसाकर बहुत खुश बदली

किनारों पर कटाव आशीष है

बांध लिए घर तट निरखने

धराशायी हुए कितने अजीज हैं


सलवटों में सिकुड़ा शहर कैसे

सूरज तपिश संग आतिश है

बदलियां बरस रहीं गरज कर

सूर्य बदली संयुक्त माचिस है।


धीरेन्द्र सिंह

20.09.2025

06.38






बुधवार, 17 सितंबर 2025

जिसकी लाठी उसकी भैंस

 तथ्य कटोरे में

सत्य असमंजस में

झूठ दिख रहा प्रखर

दृष्टि ढंके अंजन में


समय को कैसे रहे ऐंठ

जिसकी लाठी उसकी भैंस


सीढियां लगी ऊंची-ऊंची

झाड़ू सक्रिय है जाले में

कई प्रयास उपद्रव करते

कहते आ जा पाले मैं 


कहां-कहां हठकौशल पैठ

जिसकी लाठी उसकी भैंस


शास्त्र को इतना मुखर किए

शस्त्र से नाता कब छूट गया

विश्व शस्त्र की गूंज ले जगा

शास्त्र जुड़ी आशा लूट गया


फिर उभरे शस्त्र अपनाते तैश

जिसकी लाठी उसकी भैंस।


धीरेन्द्र सिंह

17.09.2025

18.56





मंगलवार, 16 सितंबर 2025

कौन कहे

 सत्य के उजियाला में सब स्पष्ट दिखे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


सुविधाभोगी हो जाती अभावग्रस्त पीढ़ी

युग करता प्रयास से संवर्धन बनकर सीढ़ी 

शीर्ष आत्मविश्वास से तथ्य निरंतर जो बहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


बोल को बिन तौल धौल का चलन किल्लोल

मोल को गिन खौल बकौल धवल सुडौल

रचनाएं नित नवीन फिर भी संरचनाएं ढहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे


रच रहा नींव में है कौन मकड़जाल

और उठते कदम कई क्यों हुए बेताल

विरोध के हैं क्षेत्र सजग और ना सहे

तथ्य बहुत पैना है आखिर कौन कहे।


धीरेन्द्र सिंह

17.09.2025

04.43



रविवार, 14 सितंबर 2025

कहकहे

 दुनिया भी है सहमत हम ही ना कहें

बिना विवाह बिना साथ रहे कहकहे


भावनाओं का अबाधित आदान-प्रदान

समझदार ही मिलें नहीं हैं यहां नादान

नवजीवन नवसुविधाएँ तपिश क्यों सहे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे


जीवन ऑनलाइन है मोबाइल धड़कने

जीवंत जो है जिए क्यों भला अनमने

प्रचंड वेगों से अनुकूल चुनकर बहे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे


आत्मिक उत्थान का यह युग बिहान

हर समस्या का है ऑनलाइन निदान

जिनदगी जो जीता पूछता न फलसफे

बिन विवाह बिन साथ रहे कहकहे।


धीरेन्द्र सिंह

15.09.2025

05.02


शनिवार, 13 सितंबर 2025

हिंदी-हिंदी-हिंदी

 हिंदी-हिंदी-हिंदी तेरी क्या है जिज्ञासा

बोली 14 सितंबर है कहां है राजभाषा


संविधान कहता हिंदी संघ की राजभाषा

यथार्थ है कहता राजभाषा बनी तमाशा

हिंदी दिवस 14 सितंबर उभरी लिए आशा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा


प्रौद्योगिकी की भाषा आधिकारिक अंग्रेजी

न्यायालय, कार्यलयों के मूल लेख अंग्रेजी

राजभाषा हिंदी खड़ी लिए कई जिज्ञासा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा


विभिन्न हिंदी मंच की प्रतिवर्ष की नौटंकी

हिंदी सर्वत्र होगी यही है जोश प्रण नक्की

महाराष्ट्र, दक्षिण राज्य पीटें भाषा ढोल-ताशा

बोली 14 सितंबर है कहाँ है राजभाषा।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2025

16.16


शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

निरर्थक टिप्पणीकार

 सुनिए जी सुनिए

इसे भी तो गुनिए

इस समूह में सरकार

होता इमोजी का व्यवहार


रोज उनीदे आते हैं

इमोजी टिप्पणी चिपकाते हैं

पोस्ट को क्यों पढ़ना

बस हाजिरी लगाते हैं


ओ इमोजी के चित्रकार

लिखने से क्यों घबड़ाते हैं

पोस्ट नहीं पढ़ना तो ठीक

रोज इमोजी क्यों चिपकाते हैं


शब्द भाव से अगर अरुचि

पोस्ट अगर नहीं पढ़ पाते हैं

तो क्यों आते पोस्ट पर जी

नकारात्मकता फैलाते हैं


देखादेखी अन्य बने हमराही

लिखना छोड़ इमोजी दिखाते हैं

लिखने-पढ़ने में यदि पैदल

इमोजी से क्या जतलाते है


हिंदी के प्रति है दुर्व्यवहार

लेखन संग हिमोजी भाते है 

मात्र इमोजी से हिंदी दब रही

ऐसे हिंदी विरोधी क्यों आते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2025

07.52




गुरुवार, 11 सितंबर 2025

तुम जुड़ो

 हम ऐसे बंधनों को उकेर कर जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए


कामनाएं पढ़ तुमको कुलबुलाती हैं

अपेक्षाएं भाव मृदुल संग बुलाती हैं

जो जँच रहा बिन उसके कैसे जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए


आसक्ति की बाती पढ़ तुमको जल उठी

नई रोशनी जली चिंगारियां मचल उठी

एक तपिश भरी कशिश बवंडर लिए हिए

मेरा हृदय बनो तुम जुडो बन प्रिए


कोई न देखता कोई न सोचता अब है

दूरियां भी व्यक्ति मिलता अब कब है

फिर भी मिलन चलन लोग ऐसे जिएं

मेरा हृदय बनो तुम जुड़ो बन प्रिए।


धीरेन्द्र सिंह

11.09.2025

23.08

रुबिका लियाकत

 हिंदी चैनल पत्रकारिता की शराफत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


प्रथम चर्चा पर रखतीं पूर्ण नियंत्रण

पैनल वक्ता को देती क्रमशःनिमंत्रण

कुछ भी बोल चलें होती न हिमाकत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


आकर्षक वेशभूषा बड़ी गोल बिंदी

दमकता भाव चमकती लगे हिंदी

इतनी प्रखर पत्रकारिता की सियासत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत


बिना किसी दबाव बिना किसी पक्ष

चर्चा का जो विषय वही होता लक्ष्य

अध्ययन, शोध की बौद्धिक नज़ाकत

प्रत्यक्ष लगता, हैं रुबिका लियाकत।


धीरेन्द्र सिंह

12.09.2025

17.43




बुधवार, 10 सितंबर 2025

श्रेष्ठ रचनाकार

 पुस्तक प्रकाशन की आवश्यकता क्या है

प्रौद्योगिकी जब स्पष्ट कार्य करने लगी है

कश्मीर और बंगाल को पढ़ पाते भी कितना

विवेक अग्निहोत्री प्रतिभा जो कहने लगी है


गहन शोध कर सत्य कथ्य को खंगालकर

पटकथा, अभिनय, संवाद लेंस जड़ी है

निर्देशन से अभिनय सहज होकर जागृत

पुस्तकों की बातें स्पष्ट अब स्क्रीन चढ़ी हैं


हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकार हैं विवेक अग्निहोत्री

दग्ध कोयला भी हथेली पर ठुमकने लगी है

निर्भीकता से इतिहास सजीव करें प्रस्तुत

पुस्तकें अभिव्यक्तियों में पिछड़ने लगी है।


धीरेन्द्र सिंह

10.09.2025

17.56



मंगलवार, 9 सितंबर 2025

गीत सावनी

तृषित अधर है लोग किधर हैं
ऐसा क्या जो तितर-बीतर है
मेघा को बरसाओ न
गीत सावनी गाओ न

अगड़म बगड़म कैसा तिकड़म
गली-गली कस्बा और शहरम
मेधा और जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

हाथ कहां, अंगुलियां है गुदगुदाती
लक्ष्य भ्रमित, पर हैं पथ बतलाती
लक्ष्य को जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

वृंदगान का पहर उभर बौराए
धुन उठ रही शब्द कौन रचाए
सरगमी गीत बनाओ न
गीत सावनी गाओ न।

धीरेन्द्र सिंह
09.09.2025
18.28






बुधवार, 3 सितंबर 2025

आओ मिलो

सब टूट रहे बनाने को अपनी पहचान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

हिंदी जगत में अब नित नए बनते मंच
मौलिकता के नाम पर करें हिंदी पर तंज
क्यों टूटकर बताना चाहें स्वयं को महान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

कुल पचास अधिकतम हिंदी रचनाकार
अनेक समूह में इन्हीं की है जारी झंकार
कुछ कॉपी पेस्ट कर करें हिंदी का सम्मान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

आओ मिलो ना ऐसे टूटकर रहो बिखरते
चिंतन घर्षण दर्पण से मूल लेखन निखरते
अधिक्यम दस विशाल समूह ही लगें निदान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान।

धीरेन्द्र सिंह
03.09.2025
18.49

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

अभियुक्त

 अभियुक्त


समूह में होकर भी समूह से ना मैं संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


हिंदी जगत के जंगल का हूँ एकल राही

दायित्व भाषा साहित्य का उसका संवाही

स्व विवेक ने मुझे स्वकर्म हेतु किया नियुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभिभूत


आग्रह था, मंच नाम रचना शीर्षक लिखें

छवि अपनी भी लगाएं, भूल रचना हदें

भाषा साहित्य संवरण में क्या यह उपयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


जरा सी बात पर हिंदी लगा है तिलमिलाई

त्यजन कर बढ़ा वहां कुछ कहें है ढिठाई

हिंदी विधाओं का संवर्धन करें अब संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

18.31



सोमवार, 1 सितंबर 2025

रात बहेलिया

 रात बहेलिया बनकर

अपना काला जाल

फेंक रही है

अति विस्तृत

अति महत्वाकांछी,

चांदनी नहीं आ रही

पकड़ में

जाल घूम रहा है

कुत्तों से बचते-बचाते

भौंकते झपटते हैं

जाल पर,


रात अभी तेजी से

दौड़ती गुजरी है

मेरे पास से

और में उठ बैठा

रात्रि के एक बजे,

चमगादड़ अलबत्ता

कर देते हैं उत्सुक

जाल को

और बहेलिया रात

लपक दौड़ती है

चमगादड़ में ढूंढने

चांदनी,


सन्नाटा वादियों की

गहराई से गहन है

सडकें लग रही है

खूबसूरत

दूर-दूर तक,

थकी निढाल उनीदी,

बहेलिया सम्भालस जाल

चार रहा है पकड़ना

चांदनी,


मुझे क्या

नींद आ रही है,

बौराया बहेलिया

दौड़ाता भागता रहेगा

भोर तक,

चांदनी ? फिर चांदनी कहां,

सोते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

01.05






रविवार, 31 अगस्त 2025

आएंगे

 रोज ऐसे अगर आएंगे

हम बेपनाह संवर जाएंगे

मुझे दिखती है जिंदगी

बंदगी में उमर बिताएंगे


आने का है कई तरीका

सलीका भी बुदबुदाएँगे

अदाओं की देख आदत

उम्मीदगी का असर पाएंगे


आती है भोर किरणें 

उसमें ही नजर आएंगे

किरणों पर जीवन आश्रित

आनंदिगी से भर जाएंगे


सुबह राह तकती आंखें

वह आकर गुनगुनाएंगे

रच जाती नित कविता

पढ़ इसको मुस्कराएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

19 26





शनिवार, 30 अगस्त 2025

चल बैरागी

 संकुचित मर्यादाएं

दबंग संस्कार

व्यथित मनोकामनाएं

भूसकल त्यौहार


हर किसी का बाड़ा

लुकछुप व्यवहार

किसका किसपर उधार

कहां कब अख्तियार


सब जिएं ऐसे ही

जीवन लौ को दे बयार

सत्य उभरता ही कहाँ

सत्यवादी यह संसार


अकुलाहट विश्राम चाहे

सुखकर गोद की दरकार

चल बैरागी ठौर वही

जहां चिंगारियों का चटकार।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

06.31

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

कर्म का फल

 कर्म अब धर्म, अर्थ, भाषा आधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


सत्कर्म है संबंधित समाज, देश नियम

कर्म व्यक्तिजनित हतप्रभ अधिनियम

पाप-पुण्य समायाधीन जग में संचारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


जैसा कर्म वैसा फल प्रबुद्ध समाज का

भ्रष्टाचार जहां वहां परिणाम गजब का

मानवता सृजित निरंतर विकास पगधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


कलयुग का नाम ले कर्मधर्म कहें कंपन

मानवयुग उलझन में हो कहां समंजन

सब चले राह चले बांह छाहँ ना निर्धारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित।


धीरेन्द्र सिंह

29.08.2025

13.39







गुरुवार, 28 अगस्त 2025

अधर आंगन

 अधर के आंगन में अनखिले कई शब्द

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


नयन की गगरी से भाव तरल कभी गरल

अगन की चिंगारियां हवा संग रही बहल

अधर आंगन में चाहत जैसे छुईमुई निबद्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


चल पड़े भाव राह उलझा जो संग बहेलिया

खिल पड़े घाव आह सुलझा दी तंग डोरियां

कुछ भ्रम भी उभरते हैं जैसे अलगनी प्रारब्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध


अधर गुप्त कंपन समंजन में पाए भंजन

आंगन हवा बहे प्रयास किमनरूप प्रबंधन

आत्मिक ऊर्जा लहक लपक छुई आबद्ध

असर की चाहत में सिलसिले कई स्तब्ध।


धीरेन्द्र सिंह

28.08.2025

18.3


बुधवार, 27 अगस्त 2025

पधारे मेरे घर

 प्रगति सकल चिंतन हो एक सामाजिक गणवेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


सज्जा मनोभाव की करने का है यह एक प्रयास

गौरव है प्राप्त होता श्री गणेश करें गृह निवास

दीवारों से पूछिए कैसा हो जाता है अद्भुत परिवेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


अपनी अनुभूतियों का अब और ना करूँ बखान

गणेशोत्सव परंपरा के सृजनकर्ता हैं अति महान

श्री गणेश इस अवधि में देते आशीष शक्ति विशेष

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश


करबद्ध खड़ा हूँ वचनबद्ध आबद्ध स्वयं से सम्बद्ध

गणपति विराजे हैं तो भाव से हूँ आपूरित निबद्ध

आपका भी मंगल हो दंगल अब जीवन का संदेश

ऐसी बोली बोल रहे हैं पधारे मेरे घर श्री गणेश🙏🏻


धीरेन्द्र सिंह

27.08.2025

16.28

सोमवार, 25 अगस्त 2025

गणेश

 हर गली हर सड़क हर बिल्डिंग लिए एक भेष

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


अति विशाल अति भव्य झांकिया समय संभव

अति विशाल महानगरी देखता न कभी पराभव

एक दिवसीय, दस दिवसीय अर्चना अति विशेष

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


मुम्बई, नवी मुंबई अब तीसरी आ रही है मुम्बई

विस्तार है स्वीकार है सत्कार है हर कल्पना नई

गणपति बप्पा में है डूबा महाराष्ट्र का पूर्ण परिवेश

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश


अपने घर में पधारे गणेश जी की प्रथम अर्चना

फिर मुंबई में भ्रमण कर रात्रिभर गणेश कल्पना

वक्रतुंड महाकाय का आशीष करें निर्मूलन क्लेश

आ गए हैं मुंबई की धड़कन, ऊर्जा लिए गणेश।


धीरेन्द्र सिंह

26.08.2025

11.46

दौर के दौड़

 दौर के दौड़ में हैं थक रहे पाँव

गौर से तौर देखे कहाँ तेरा गांव


एक जगत देखूं है ज्ञानी अभिमानी

एक जगत निर्मल निर्मोही जग जानी

जिससे भी पता पूछूं ना जानें ठाँव

गौर से तौर देखे कहाँ तेरा गांव


वह जो पुकार हृदय में रही गूँज

उभरते भाव रहे कामना को पूज

और कितना दौड़ना कहां है छांव

गौर से तौर देखे कहां तेरा गांव


पथ भी अनेक विभिन्न रंग के राही

हर पथ गूंजता करता तेरी वाहवाही

ओ चपल तू छलक ललक दे दांय

गौर से तौर देखे कहां तेरा गांव।


धीरेन्द्र सिंह

25.08.2025

21.00

शनिवार, 23 अगस्त 2025

आध्यात्मिक

अस्वाभिक परिवेश में बुलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


माना कि स्वयं को हो करते अभिव्यक्त

पर यह तो मानो हर आत्मा यहां है भक्त

धर्म के भाव छांव संग गहराया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


आसक्त है मन तुमसे जहां गहरी वादियां

उन्मुक्त तपन में सघन विचरती किलकरियाँ

अनुगूंज अपने मन का छुपाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


यह तन सर्वप्रथम है आराधना का स्थल

तन जीर्ण-शीर्ण ना हो करें प्रयास प्रतिपल

आसक्ति-भक्ति-मुक्ति जतलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो


चिकने चेहरे निर्मल मुस्कान लिए प्रेमगान

उल्लसित उन्मुक्त प्यार ही में किए ध्यान

यही आध्यात्मिक यह झुठलाया ना करो

आध्यात्मिक हो यह दिखावा ना करो।


धीरेन्द्र सिंह

24.08.2025

08.42

मर्द

 सबकी अपनी सीमाएं सबके अपने दर्द

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक परिवेश

इन तीनों से होता निर्मित मानव का भेष

पार्श्वभूमि समझे बिना निकालते हैं अर्थ७

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


हर व्यक्ति चाणक्य है संचित अनुभव ज्ञान०

एक स्थिति में कोई शांत कोई लिए म्यान

आक्रामकता पौरुषता सौम्यता क्या सर्द

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द


व्यक्ति परखना पुस्तक की समीक्षा जैसे

बाहर से जो दिख रहा क्या भीतर वैसे

क्षद्म रूप के चलन में रूप आडंबर तर्क

अपनी श्रेष्ठता निर्मित करना क्या है मर्द।


धीरेन्द्र सिंह

23.08.2025

16.14

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

छनाछन

 भूल जाइए तन मात्र रहे जागृत मन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


काया की माया में है धूप कहीं छाया

मन से जो जीता वह जग जीत पाया

आत्मचेतना है सुरभित सुंदर अभिगम

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


युक्तियों से रिक्तियों को कौन भरपाया

आसक्तियों की भित्ति पर चित्रित मोहमाया

थम जाएं वहीं जहां अटके मुक्त मन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन


पट्टे में बंधे श्वान से लेकर हैं चलते मन

बँध जाना जीवन में न कहे धरती गगन

खोलकर यह बंधन अपने में हों मगन

प्रतिध्वनि तब उभरेगी छन छनाछन।


धीरेन्द्र सिंह

22.08.2025

07.48




सलवटें

सलवटें नहीं होती
सिर्फ बिछी चादर में
व्यक्तित्व भी होता है भरा
असंख्य सलवटों से
कुछ चीन्हे कुछ अनचीन्हे,

नित हटाई जाती है
सलवटें चादर की
पर नही हटाता कोई
व्यक्तित्व की सलवटें
प्रयास जाते हैं थक,

कैसे बना जाए
विराटमना
निर्मलमना,
घेरे जग का कोहरा घना,
आओ छू लो
मन मेरा, मैं तेरा
बन चितेरा,

ना
प्यार नहीं आशय
प्यार तो है हल्का भाव
भाव है आत्म मिलन,
सलवटें प्यार से 
मिटती नहीं,
आत्मा जब आत्मा से
मिलती है
चादर व्यक्तित्व की
खिंचती है
तो हो जाता है
आत्मबोध,

आओ मिलकर
व्यक्तित्व चादर का
खिंचाव करें
संयुक्त खिलकर
सलवट रहित व्यक्तित्व का
निभाव करें।

धीरेन्द्र सिंह
21.08.2025
13.56



मंगलवार, 19 अगस्त 2025

मुम्बई वर्षा

 मुम्बई में 

हो रही चार दिनों से

लगातार बरसात

और मीडिया बोल रहा

मुम्बई जल से परेशान,

मीडिया यह नहीं

बता रहा है कि

कुलाबा से महालक्ष्मी मंदिर

बरसात से अप्रभावित है

क्योंकि रहते हैं 

इन्हीं क्षेत्र में 

अति प्रतिभाशाली,

बॉलीवुड प्रतिभा नहीं

मात्र अभिनय कौशल है,

करोड़ों के फ्लैट

मुंबई की आम बात है,


नहीं करता मीडिया

नवी मुंबई की बात

जहां भीषण वर्षा में भी

जलरहित सड़कें हैं,

एक अपूर्ण जानकारी

कर रहा प्रदान मीडिया,

जिसकी विवशता है

टीआरपी

अति प्रतिभाशाली

और नवी मुंबई भी

सुरक्षित है

पीं पीं।


धीरेन्द्र सिंह

19.08.2025

2क.25 

सोमवार, 18 अगस्त 2025

बरसात

 बहत्तर घंटे से लगातार बरसात

भोर नींद खुली भय के हालात


लग रहा बादल फटा क्रोध जता

बारिश की गर्जना मौन रतजगा

भोर पांच तीस पर दूध का साथ

भोर नींद खुली भय के हालात


विद्यालय, महाविद्यालय बंद आज

जीवन मुम्बई का करे दो-दो हाँथ

मंथर पर जीवन घोर वर्षा का आघात

भोर नींद खुली भय के हालात


लोकल बंद होगी सड़क बन तालाब

दैनिक मजदूर दुखी सब लाजवाब

वर्षों बाद मुम्बई में है वर्षा उत्पात

भोर नींद खुली भय के हालात।


धीरेन्द्र सिंह

19.08.2025

05.57

रविवार, 17 अगस्त 2025

प्रिए

 तुम कहाँ हो लिए व्यथित हृदय

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


तृषित अधर नमक चखें समर्थित

बतलाओगी संख्या कितनी व्यथित

अनुराग विस्फोटन को लिए दिए

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


वर्ष कई बीत गए हुए हम विलग

न जाने कौन सी जलाई अलख

ईश्वर से प्रार्थना सुखी वह जिएं

कौन है अब धड़कन बना प्रिए


आधार प्यार का मन संचेतना है

प्रमुख मिटाता वह अन्य वेदना है

प्रणय कुछ नहीं कैसे उल्लासपूर्ण जिए

कौन है अब धड़कन बना प्रिए।


धीरेन्द्र सिंह

17.08.2025

22.43


गज़ब

 सुनो में एक हद हूँ

और तुम बेहद

बात इसमें यह भी

मैं बेअदब हूँ

और तुम संग अदब,

है न गज़ब!


हम में विरोधाभास

पर मैं हताश

और तुम आकाश

बात इसमें यह भी

मैं प्रणयवादी हूँ

और तुम व्यवहारवादी

है न गज़ब!


हम में भी यह विकास

तुम दूसरे राज्य

मुझे लगो तुम साम्राज्य

बात इसमें यह भी

मैं लौ दीपक

पर तुम प्रकाश

है न गज़ब!


हम स्पष्ट विरोधाभास

मूल हित संस्कार तोड़ता बेड़ियां

तुम प्रगतिशील भूल पीढियां

बात इसमें यह भी

मैं मात्र आस

और तुम मधुमास

है न गज़ब।


धीरेन्द्र सिंह

17.08.2025

21.06





रिश्ते

कुछ रिश्ते इतने रम जाते हैं

कि न जाने कब मर जाते हैं


झटके दर झटके भी है अदा

रिश्ता है तो नोक-झोंक बदा

कब अपने रिश्ते में भर जाते हैं

कि न जाने कब मर जाते हैं


झटके से जो मरता रिश्ता नहीं

खट से मार डालें सिसकता नहीं

रह-रहकर तेज धार दिखलाते हैं

कि न जाने कब मर जाते हैं


कई मर चुके उसकी गिनती कहां

जो अब मर रहे उनमें विनती कहां

भाव इस विलगाव पर झुंझलाते हैं

कि न जाने कब मर जाते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

17.08.2025

19.55

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

गोविंद

 कनखियों से गोपी भाव धमाल है

माखन चोरी में अब कहाँ ताल है

दही-हांडी महाराष्ट्र का एक स्वरूप

धनवर्षा मुंबई में कृष्णोत्सव ढाल है


गोविंदा की निकलती हैं कई टोलियां

एकदूजे के कांधे पर  चढ़ना कमाल है

शारीरिक सौष्ठव संतुलन का उत्सव

"गोविंदा आला रे" संगीत ताल है


अब तो युवतियों की भी गोविंदा टोली

बहुत ऊंचाई तक जाना खयाल है

गोपियाँ भी कान्हा की तरह माखनचोर

मुम्बई में कृष्ण जन्माष्टमी द्रुतताल है।


धीरेन्द्र सिंह

16.08.2025

07.14

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

15 अगस्त

 विश्व कहीं मस्त कहीं अस्तव्यस्त है

भारत भी कहे भविष्य 15 अगस्त है


विविधता में एकता ही प्रखर भवितव्य

विभिन्नता में श्रेष्ठता ही अधर अमृत्व

सभी ओर सक्रियता के लक्ष्य सत्य है

भारत भी कहे भविष्य 15 अगस्त है


कथ्य में सत्य की विशाल लिए संस्कृति

अपनी समस्या हटाते राष्ट्र की नित उन्नति

हर नागरिक कर्म का नैवेद्य का कक्ष है

भारत भी कहे भविष्य 15 अगस्त है


ललाट पर धारित तिरंगे की ओजस्विता

सम्राट का अस्तित्व विचारित तेजस्विता

राष्ट्र ही सर्वस्व भारत विश्वगुरु प्रशस्त है

भारत भी कहे भविष्य 15 अगस्त है।


धीरेन्द्र सिंह

15.08.2025

08.37


बुधवार, 13 अगस्त 2025

क्रंदन

 सौंदर्य की चंचलता पर संस्कारी बंधन

इतना ना जकड़िए मन में होता क्रंदन


रूपवती हैं, निगाहें मान लेती हैं गुणवती

धुनमति हैं अदाएं जान लेती हैं द्रुतगति

सौम्य, शांत, संयत, शीतल सुगंधित चंदन

इतना न जकड़िए मन में होता क्रंदन


अनदेखा कर भूल जाना भला कहां संभव

आपके सौंदर्य से प्रणय सदियों से पराभव

आसक्ति मुक्ति ना चाहे बस सौंदर्य अभिनंदन

इतना न जकड़िए मन में होता क्रंदन


भावनाओं की रिक्तियां चाहे प्यार युक्तियाँ

सौंदर्य परख दृष्टि की नित नव आसक्तियां

विनयपूर्ण सम्मान में गरिमा का हो वंदन

इतना न जकड़िए मन में होता क्रंदन।


धीरेन्द्र सिंह

14.08.2025

09.03



मंगलवार, 12 अगस्त 2025

यूट्यूब पाती

 दूसरों की कविताएं चुन जब तुम थी गाती

कहो क्या था, संदेसा या प्रेम यूट्यूब पाती


मेरे भी गीत में की थी तुम कई परिवर्तन

सुर, लय में बांध ली भाव का था आवर्तन

आज भी हूँ सुनता जिंदगी जो पीट जाती

कहो क्या था, संदेसा या प्रेम यूट्यूब पाती


सबकी तो हैं होती अपनी लक्ष्मण रेखा

जिसने उसको फांदा जीवन विभिन्न देखा

ऐसी रेखाएं तोड़ती बन गयी प्यार उन्मादी

कहो क्या था, संदेसा या प्रेम यूट्यूब पाती


प्रणय को कहा बयार तुम समझ पाई सस्ता

व्यक्तित्व मिलन दुर्लभ समझी बिखरा बस्ता

चुगते गई अविवेकी कागजी नाव भाव बहाती

कहो क्या था, संदेसा या प्रेम यूट्यूब पाती


व्हाट्सएप्प चैट वीडियो कॉलिंग अन्य हैं रास्ते

हर एप्प पर थी दिखती थी तुम दौड़ते हांफते

क्या चाह थी क्या राह थी विभिन्न तथ्य अपनाती

कहो क्या था, संदेसा या प्रेम यूट्यूब पाती।


धीरेन्द्र सिंह

13.08.2025

09.30


जुगलबंदी

 लय में बंधी रहोगी धुन में बंधी रहोगी

संगीत जीवन का दिया तुम्हारा सानिध्य

गीत रचने लगे भाव रंग-रंग के खिलें 

होता है ऐसा ही मन का मन से आतिथ्य



लय में बंधी रहोगी धुन में बंधी रहोगी

संगीत जीवन का दिया तुम्हारा सानिध्य

गीत रचने लगे भाव रंग-रंग के खिलें 

होता है ऐसा ही मन का मन से आतिथ्य


कपोलों में हंसती थी चुराती जो अंखिया

खिल मुझसे लिपट जाता था वह साहित्य

दिल की धड़कनों पर दौड़ता बोलता मन

क्या-क्या न रच गईं तुम प्यार का आदित्य


भावनाओं को शब्दों की चूनर थी चढ़ाती

यूट्यूब में गीतों का था अभिनव दृश्यव्य

यत्र-तत्र प्रकाशित होती थी गुंजन तुम्हारी

कई सुरों का बखूबी बतला थी महत्व


वह अपनी जुगलबंदी थी छाप थी अलग

किस कदर परिवेश में था तुम्हारा आधिपत्य

प्रसिद्धि न संभाल सकी चापलूस पैठ गए

हर डगर समावेश में गा पुकारा किए अनित्य।


धीरेन्द्र सिंह

12.08.2025

17.23




सोमवार, 11 अगस्त 2025

बालकृष्ण

 भोला चित्ताकर्षक मनमोहक रूप

मुग्धित दृष्टि लिए चुम्बकीय अनूप

सृष्टि सहर्ष उत्कर्ष की है ललक लिए

चांदनी लिपट गयी देख अद्भुत धूप


मात-पिता शिशु देखें भाव के झकोरे

आत्मतृप्ति ले आसक्ति आयो सपूत

एक ऊर्जा सकारात्मक जैसे ब्रह्मचेतना

भाग्य खिला जीवन मिला जैसे शहतूत


नयन गति पालना गति सुख सम्मति

माँ अनुग्रहित कोख प्रभाव जो भभूत

पित्र चित्र भाव के पूरित शिशु प्रभाव

उन्नयन बहुरंगी गगन आभामंडल सूत


कान्हा को कहना एक दिव्य अनुभूति

कामनाएं सविनय करें कृष्ण तो अकूत

बालरूप अतिदिव्य रूप पूर्ण कौन देखे

अर्चना संग सर्जना विनीत भाव से आहूत।


धीरेन्द्र सिंह

11.08.2025

20.26

रविवार, 10 अगस्त 2025

जनकल्याण

 सब कुछ बदल देंगे, कथ्य डंटा है

यह राय है समय का, सत्य बंटा है

एक हौसला से ही हो पाता फैसला

कुछ बात है कि लगे हौसला छंटा है


डैने पसारकर उड़ने की समय मांग

छैने में बैठकर सिर्फ बातों की छटा है

संस्कृतियां ले रही हैं बेचैन करवटें

कह रही सभ्यता कि अब क्या घटा है


कहीं व्योम है सिंदूरी कहीं श्यामलता

कहीं उर्वरक धरा कहीं बंजर अड़ा है

प्रगति की दौड़ में द्रुत गतिमान दिशाएं

लगने लगा अपरिचित जो संयुक्त धड़ा है


भाषा के नाम पर अभिव्यक्तियों के बाड़

धर्म के नाम पर मानव सत्कर्म मथा है

अब कर्म ही आधार, सर्व सुखदाई रहें

जनकल्याण विश्व का हो चाह दृढ़ खड़ा है।


धीरेन्द्र सिंह

10.08.2025

18.46



शनिवार, 9 अगस्त 2025

सचेतक हुंकार

 उत्सव है, खुशियां हैं, वस्त्रों की झंकार है

भीड़ सुबह दुकानों पर उड़ रहा प्यार है


यह भी एक चर्चा है त्यौहार बस पर्चा है

रक्षाबंधन से प्रारंभ पर्व संबंधों का दर्जा है

अजीब सुगबुगाहटों संग सजग संसार है

भीड़ सुबह दुकानों पर उड़ रहा प्यार है


विश्वास का यह धागा पारंपरिक बंधन अटूट

एक सुरक्षा अभेद्य शौर्य, कीर्ति, चाह सम्पुट

इसपर भी आक्रमण सब प्रयास बेकार हैं

भीड़ सुबह दुकानों पर उड़ रहा प्यार है


अबकी राखी बंधी पहले से अधिक जंची

धूल-धक्कड़ न बसे दुकानों ने नीति रची

त्यौहारों में भी अब सचेतक हुंकार है

भीड़ सुबह दुकानों पर उड़ रहा प्यार है।


धीरेन्द्र सिंह

09.08.2025

15.09



गुरुवार, 7 अगस्त 2025

संस्कार

 जैसा देखा जीवन वैसा निर्मित आकार

आदर्श, नैतिकता संग बनता है संस्कार


कुछ परंपरा से मिली जीवन की आदत

कुछ परिवेश से भी बढ़ जाती है लागत

कुछ शिक्षा, दीक्षा का ले बढ़ते हैं आधार

आदर्श, नैतिकता संग बनता है संस्कार


अधिकांश होते अपने धर्म की किलकारी

विरले ही करते परिस्थिति तर्क से यारी

कहीं देह निर्वाण कहीं देह लज्जा व्यवहार

आदर्श, नैतिकता संग बनता है संस्कार


वर्तमान में द्रुत परिवर्तन से जीते मुहं मोड़

देखा, जीया है नहीं पढ़-सुन कहें इसे तोड़

अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा में ही झंकार

आदर्श, नैतिकता संग बनता है संस्कार


धन, संपदा, वैभव, ख्याति के जो अनुयायी

ऐसे यथार्थ समझे बिना जो पाया पगुरायी

बौद्धिक होना गहन साधना तर्क हवन आधार

आदर्श, नैतिकता संग बनता है संस्कार।


धीरेन्द्र सिंह

08.08.2025

12.12


बुधवार, 6 अगस्त 2025

भाग चलें

 खुद में खुद को बांटना चाहता है

व्यक्ति परिवेश से भागना चाहता है

एक घुटन में सलीके से जी रहा है

खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है


कहीं अकेले किसी पर्वतीय हरियाली

मनचाहे फूलों का एकल बन माली

भाव माला को वरण करना चाहता है

खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है


सबकी सोचता है उसकी न कोई सोचता

घर की अनिवार्यता घर रहता है खोजता

सबकी निभाता मनचाही कामना बांटता है

खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है


अब उसे लगता है अपने से है दूर चली गई

दायित्व निर्वहन के नाम दिनचर्या छली गई

यह भीड़ यह व्यस्तता मौन में काटता है

खुद की ऊष्मा खुद तापना चाहता है।


धीरेन्द्र सिंह

07.08.2025

11.01

प्रौढ़ावस्था

 आप चलचल, आप चपल, आप चंचल

आप धवल, आप कंवल, आप कलकल


शिशु कभी दिखता कभी दिखे किशोरावस्था

कभी यौवन उन्मादी सा क्या खूब प्रौढ़ावस्था

भाव चहके मन भी बहके देखें आंखें मलमल

आप धवल, आप कंवल, आप कलकल


अनुभवों के प्रत्येक चरण आपके हैं शरण

अद्भुत जिजीविषा है उमंगों का नहीं क्षरण

जिंदगी कलरव प्रणय कभी रिसी छलछल

आप धवल, आप कंवल, आप कलकल


बढ़ती उम्र ढलती देह भला क्यों सोचे नेह

दृष्टि भाव ही सर्वस्व नयन, अधर भरे स्नेह

आप तरंग, आप विहंग, आप सुगंध पलपल

आप धवल, आप कंवल, आप कलकल।


धीरेन्द्र सिंह

07.08.2025

07.40

विशिष्ट बनिए

 हिंदी में हैं लिखते तो क्यों परिशिष्ट बनिए

कुछ अपना भी आरम्भ कर विशिष्ट बनिए


कुछ नया गठन से निर्मित हो साहित्य सदन

धरा आपको भी पूछे पहचानता हो यह गगन

कभी समूह, कभी संस्था कभी कुछ रचिए

कुछ अपना भी आरम्भ कर विशिष्ट बनिए


देखिए कुकुरमुत्ता सा उभर जाते हैं मौसम

युद्धभूमि सैनिक तंबुओं सा अस्तित्व परचम

अपना भी तंबू रच नाम अपना शीर्ष रखिए

कुछ अपना भी आरम्भ कर विशिष्ट बनिए


हिंदी भाषा कहीं साहित्य कहीं बस अवसरवाद

अपने नाम ख्याति के लिए है साहित्यिक संवाद

हिंदी के हित के बारे में बस निरंतर बोलते रहिए

कुछ अपना भी आरम्भ कर विशिष्ट बनिए।


धीरेन्द्र सिंह

06.08.2025

13.56

मंगलवार, 5 अगस्त 2025

धराली गांव

 उत्तरकाशी का धराली गाँव

गंगोत्री यात्रा का प्रमुख पड़ाव

बादल फटा मलबा बहा प्रचंड

देखते ही देखते कई घर घाव


प्रकृति के करीब प्रकृति अनुसार

व्यक्ति कामना प्रबल बढ़ते द्वार

बादल फटा नदी भरी मलबा धाव

देखते ही देखते कई घर घाव


पहाड़ रहे टूट सागर को रहे पाट

वृक्ष भी कट रहे प्रगति का ठाट

मनुष्य प्रकृति में करे विस्तार प्रस्ताव

देखते ही देखते कई घर घाव


अग्नि, जल, वायु सर्वशक्तिमान हैं

मनुष्य प्रगति के भी कई दांव हैं

धराली पुनः संकेत दे प्रकृति छांव

देखते ही देखते कई घर घाव।


धीरेन्द्र सिंह

05.08.2025

15.57



सोमवार, 4 अगस्त 2025

प्यास

जीवन की टहनियों से शब्दों को लिए तोड़

वह ताक दिए थे बस जीवन को लिए मोड़

आस चढ़ी प्यास कुछ खास हुए एहसास

जाना-बूझा न सुना रिश्ता सा लिए जोड़


टहनी से चुने शब्द पर चढ़ा भाव का मुलम्मा

लिखें या कहें कोशिश कश्मकश संग होड़

एहसास जिसमें प्यास हो वह कैसे खास हो

एक आतुरता एक बेचैनी सागर सा है आलोड़


उनका ताकना उनकी आदत भी अदा भी है

उनमें बहकना स्वाभाविक देख जी उठे मरोड़

व्यक्तित्व का कृतित्व जब जीवंत अस्तित्व लगे

निजत्व के घनत्व का अपनत्व बढ़े तब दौड़


इसलिए भी किसलिए कभी हँसलिए कथ्यलिए

बहेलिए सा चलदिए पहेलियों का जाल ले बढ़ा

उनका ताकना जबसे लगे है कोमल सा बांधना

असीम प्यास लिए आस सम्मान हेतु हो खड़ा।


धीरेन्द्र सिंह

04.08.2025

14.14




शनिवार, 2 अगस्त 2025

गांव

 गलियां सूनी हैं पहेलियों के पांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


राहों की माटी पकड़ रही हैं छोड़

धूल बनकर दौड़ती जिंदा कहां मोड़

खेत-खलिहान लगे कौवा की कांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


जेठ की भरी दोपहरी सा है सन्नाटा

चहल-पहल खुशियों को लगा चांटा

गिने-चुने लोग तरसे व्यक्तियों को छांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


बंटाई व्यवस्था पर अधिकांश हैं खेत

घर एक दूसरे से छुपाते हैं खबर, भेद

परिवार, खानदान में हैं नित नए दांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


शाम ढलते ही होती कुछ वही सरगर्मियां

नशा विभिन्न प्रकार के रचते हैं शर्तिया

ग्रामीण संस्कृति में गायब हो रहे हैं गांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव।


धीरेन्द्र सिंह

02.08.2025

15.08




गुरुवार, 31 जुलाई 2025

धर्माचार्य

 वासना से जुड़कर अब चर्चा चरित्र हो गयी

दो धर्माचार्य की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


सृष्टि के आरंभ से पनपती रही हैं कामनाएं

वृष्टि आर्थिक विकास की बलवती वासनाएं

नई परिभाषाएं भाव चरित्र में विचित्र बो गईं

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


देह की दालान से जुड़ा पवित्रता का मचान

धर्मग्रंथों में है उल्लिखित पवित्रता का विधान

कर्म कहीं दब गया देह छोड़ पवित्र लौ गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


नारी शोषण है नारी देह की रचित शुद्धता

पुरुष दबंगता से रही लड़ती नारी निहत्था

विकसित बौद्धिक समाज प्रज्ञा कौंध गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


यह न राजनीति और ना बात विवादास्पद

मानवीय समाज और परिवार उत्पादक

वैवाहिक संस्था रही टूट प्रथा कैसी हो गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी।


धीरेन्द्र सिंह

01.08.2025

10.54

न्यायालय

 तत्व छूट जाता सत्य रहता लड़खड़ाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


सत्ता और शक्ति में संभव है असंतुलन

नागरिकता ज्वलंत न तो संभव है दलन

आत्मा विचलित को विधि बांध न पाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता लगे तकिया

यह दुखद ऐसी समाज में चर्चित बतियां

मानवता के मूल्यों में कांध न लग पाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


गरजकर बरसकर दमभर सबका है सफर

राह अपनी चाह अपनी अन्य कुछ बेकदर

कृत्रिम जीवन संस्कृति को दीमक चाट छाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता।


धीरेन्द्र सिंह

31.07.2025

19.25



बुधवार, 30 जुलाई 2025

रीता है

 सब लोग कहें कुशल-मंगल सब बीता है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


सभी प्रयास सभी सावधानियां नियमावली

बढ़ते कदम अथक पर घुमाती रही वही गली

कभी कर्म कभी भाग्य कहीं प्रारब्ध लीला है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


कर्म के मर्म को समझ धर्म निरखें नर्म-गर्म

भाग्य के भाष्य में साक्ष्य के पथ्य पार्श्व कर्म

कर्मवाद भाग्यवाद बहुविवाद कौन जीता है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


हर व्यक्ति कर भक्ति किसी नशे से कर आसक्ति

शालीन कोई अशालीन नशे से चाहे दर्द मुक्ति

शिष्ट और अशिष्ट व्यक्ति परिस्थितियों का छींटा है

कौन जाने किसके जीवन में  क्या रीता है।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2025

21.18


मंगलवार, 29 जुलाई 2025

भूंरी पत्ती

हवा के झोंके से आ गयी चिपक

भूंरी सी कम नमी वाली वह पत्ती

चिहुंक मन जा जुड़ा वहीं पर फिर

जहां जलती ही रहती भाव अगरबत्ती


थोड़ी कोमल थोड़ी खुरदुरी सी लगे

उम्र भी हो गयी देह की अपनी सूक्ति

हल्की खड़खड़ाहट से बोलना चाहे

मुझको छूते चिकोटी काटते भूंरी पत्ती


खयाल भी अकड़ जाते हल्के से जैसे

हवा संग दौड़ती-भागती यह भूंरी पत्ती

कभी लगता वही कोमलता सिहरन वही

अब सब ठीक लगे भटका दी भूंरी पत्ती


अचानक उड़ गई झोंका हवा का था तेज

रोकना, पकड़ना चाहा हवा से करते आपत्ति

कितनी गहराई से हम मिले वर्षों बाद जी

कहीं खोती ने दिल की हो गयी संपत्ति।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2025

08.55 

सोमवार, 28 जुलाई 2025

अविरल

 हरे पत्ते पर तैरता दीया

लय में बहती लहरें मंथर

भाव मेरे दीपक मान लो

और तुम लहरों सी निरंतर


समय हवा सा बहते जाता

दीया की लौ लचक धुरंधर

आस्था का गुंजन आह्लादित

तुम लगती हो कोई मंतर


लहरें खींचे और दीया बढ़े

लहर स्वभाव में गति अंतर

लौ की लपक चाहे कहना

लहर उचकती पढ़ने जंतर


दीया में है लौ जिया

लहरों में रही तृष्णा फहर

जीवन प्रवाह अविरल कलकल

चाहें भी तो ना पाएं ठहर।


धीरेन्द्र सिंह

29.07.2025

09.53





रविवार, 27 जुलाई 2025

ज्योति कालरा

 उम्र वरिष्ठता की सोच धर्म अब आसरा

53 वर्ष में करती हैं मुग्ध ज्योति कालरा

न तो उम्र छुपातीं न रंग बाल हैं छकाती

स्वयं पर ध्यान विशिष्ट स्वाभाविक माजरा


किसी व्यक्ति पर लिखना मतलब श्रेष्ठ है

उम्र की वरिष्ठता में आकर्षण ला धरा

सहज, स्वाभाविक नारी की अदाएं लिए

जीवन को जी रहीं कर पहल स्वभरा


नृत्य में निपुणता अभिव्यक्ति की भरमार

उम्र कुछ नहीं होता कहें विचारिए परंपरा

आज ही कुल चार वीडियो जो देखा तो

वरिष्ठों की बदलती सोच हैं ज्योति कालरा


गरिमा भी है गहनता भी और शोखियाँ

आसक्ति स्वयं पर अभिव्यक्ति भाव भरा

क्या खूब एक जीवंत वरिष्ठ पतंग सी लगें

मोहिनी हैं, आसक्त असंख्य ज्योति कालरा।


धीरेन्द्र सिंह

27.07.2025

13.27

शनिवार, 26 जुलाई 2025

हिंदी अज्ञानी

 अपशब्द कहिए हिंदी साहित्यकारों को

हिंदी में नया सार्थक करना कठिन है

गुटबंदी, चाटुकारिता विभिन्न विशेषण

सत्तर के दशक से हिंदी के यही दिन है


हिंदी और उर्दू को सगी बहन रहिए कहते

हिंदी की लिपि हिंदी के लगे दुर्दिन है

ना मंच मिला ना ही उद्घोषणा अवसर

अब हिंदी अंग्रेजी मिश्रित ताकधीन हैं


न्यायालयों और थाने की भाषा रही उर्दू

हिंदी उपेक्षा सतत हाशिए की गाभिन है

सभ्यता और संस्कृति से सीधे जुड़ी भाषा

वर्तमान में हिंदी कुछ राज्य में दीन है


हिंदी साहित्य का इतिहास चिंतन प्रथम

भारतीय संविधान राजभाषा नीति साथिन है

पाठ्यपुस्तकों की हिंदी की गुणवत्ता देखिए

चुनौतियां बहुत पर हिंदी किस अधीन है


वर्षों सीधे हिंदी प्रयोग से जो हैं जुडें

वह कर्म करते आरोपों के ना भिन-भिन हैं

अपनी योग्यता से हिंदी को समर्थित करें

अधूरे हिंदी ज्ञानियों की गूंजती धुन है।


धीरेन्द्र सिंह

26.07.2025

23.55

घूंघट

 बौद्धिकता में निहित नव हर्षिता

मनुष्यता का मुकुट है पारदर्शिता

बुद्धिमत्ता से संबंधों में भी घूंघट

विरले ही खुलकर जीते अर्पिता


स्पष्ट प्रदर्शन स्वयं की निमित्तता

क्लिष्ट जीवन क्यों क्या रिक्तिता

साफ-साफ कह दे वह ना मुहंफट

जितना स्वयं को खोलें उन्मुक्तता


दुनियादारी में पर्देदारी है कायरता

जैसा हैं वैसा दिखाएं स्व दग्धता

क्या मिलेगा जीवन में लेते करवट

चतुराई स्व से गैरों को न फर्क पड़ता


धर्म के बड़बोले धर्म की आतुरता

कर्म का दिखावा सोच में निठुरता

बहुसंख्यक घूंघट में बेसुरे खटपट

जैसा हो वैसा कहो स्व में मधुरता।


धीरेन्द्र सिंह

26.07.2025

15.20


शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

क्षमायाचना

 कड़वाहट भरे शब्द से दिया धिक्कार

"समय नहीं मिला" था उनका प्रतिकार

लंबा लिख अंग्रेजी में हम कुपित हो गए

"सॉरी" अंग्रेजी में लिख वह चुप हो गए


बैठा था अंधड़ था लड़खड़ाते कई विचार

"खेद पहुंचाना उद्देश्य न था" आंग्ल विचार

मेरे समर्पण मेरी गहनता से क्यों खेल गए

"एक्सीडेंट कल हुआ था" सहज बोल गए


यह नारी किस क्यारी की निर्मित प्रकार

समझें भी तो कैसे युग करता रहा विचार

मेरी उग्रता का वह गहन शमन कर गए

कुछ शब्द नहीं निकला ऐसे वह ढह गए


एक पीड़ा भाव क्रीड़ा सांस पश्चाताप हुंकार

नारीत्व विशालता समक्ष पुरुषत्व लगे कचनार

ईश्वर से प्रार्थना उन्हें कर स्वस्थ करें नए

करबद्ध क्षमायाचना हम यह क्या कर गए।


धीरेन्द्र सिंह

25.07.2025

14.44

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

उलाहना

 "भूल गए लगता"

पढ़ क्या कहता

व्यस्तता कारण नहीं

प्यार रहता हंसता


लिख रहा आध्यात्मिक

चिंतन वहीं रहता

ऐसा यदि बोलूं

प्यार क्यों करता


चूके जाएं चपड़ियाएँ

कौन है सहता

चाहत बन चकोर

मेरा संदेश तकता


शालीन सी शिकायत

शंखनाद सा विचरता

समर्पण ही साध्य

प्यार ऐसे निखरता


वह रहें शांत

उनका संदेश धीरता

पहल नहीं करतीं

भाव चटपटा बिखरता।


धीरेन्द्र सिंह

24.07.2025

18.41



बुधवार, 23 जुलाई 2025

साहित्य

 एक शब्द

ओढ़े हुए

अर्थ का वस्त्र,

ढूंढ रहा था

उपयुक्त भाव,


एक भाव

अभिव्यक्ति का

असर मिले

ढूंढ रहा था 

उपयुक्त शब्द,


संप्रेषण

टेबल पर

रखी चाय का

उड़ता महकता

वाष्प,


रचयिता

तल्लीनता से

रच रहा था

नव रचना

करता समृद्ध साहित्य,


साहित्य

पाठक मन में उड़ता

पुस्तकों में घुमड़ता

सितारों की तरह

टिमटिमा रहा है।


धीरेन्द्र सिंह

23.07.2025

19.13



मंगलवार, 22 जुलाई 2025

आत्मपैठ

मुझे मजबूर करती है मोहब्बत तुम्हारी

कहो क्या सच में होगी सोहबत हमारी


प्रणय के पल्लवन पर है तुम्हारी चंचलता

हृदय तुमको सराहा है लिए व्याकुलता

हृदय कहता है तुम ही हो नमन दुलारी

कहो क्या सच में होगी सोहबत हमारी


मुझे मालूम हैं समवेत सामाजिक चपलता

मेरी आत्मा करे प्रसारित निज धवलता

मोहब्बत कुछ नहीं कुछ चाहतों की तैयारी

कहो क्या सच में होगी सोहबत हमारी


वही फिर ठौर अपना वही उभरे चंचलता

दिलफेंक हूँ जो प्यार पर अक्सर लिखता 

आध्यात्मिक यात्रा में आत्मपैठ की खुमारी

कहो क्या सच में होगी सोहबत हमारी।


धीरेन्द्र सिंह

23.07.2025

08.31




शनिवार, 19 जुलाई 2025

रिश्ते

चेहरे प्रसन्न दिखें अंतर्मन रहे सिसकते

तार-तार हो गए पर हैं तार से अब रिश्ते


मोबाइल से बात है कम खुशी या गम

उड़ रहा है उड़ता जा देखते हैं अब दम

एक चुनौती प्रतियोगिता सब अंदर रिसते

तार-तार हो गए पर हैं तार से अब रिश्ते


दोनों छोर तार की पकड़ जर्जर ले अकड़

एक बैठा देखते कब दूजा चाहे ले पकड़

मानसिक द्वंद्व है ललक मंद है खिसकते

तार-तार हो गए पर हैं तार से अब रिश्ते


इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं में घुल रहे संबंध

खानदानी समरसता जैसे भटका विहंग

अविश्वासीआंच पर संबंध जलते सिंकते

तार-तार हो गए पर हैं तार से अब रिश्ते।


धीरेन्द्र सिंह

19.07.2025

19.44




शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

दीजिए

 उचित अब यही रुचि ज्ञान दीजिए

मानवता न बिखरे निजी ज्ञान दीजिए


उचित अब यही है रुचि ज्ञान दीजिए

मानवता न बिखरे निजी ज्ञान दीजिए


प्रत्येक में कुछ श्रेष्ठता और विशिष्टता

हर एक की अलग पहल तौर श्रेष्ठता

समाज न हो विचलित ध्यान दीजिए

मानवता न बिखरे निजी ज्ञान दीजिए


दिल के कमरे में नित व्यग्र चहलकदमी

मस्तिष्क है घिरा होकर तिक्त अग्र वहमी

संताप है पदचाप बन आघात नचनिए

मानवता न बिखरे निजी ज्ञान दीजिए


एक दिया लौ से जले अनेक दिया लौ

मानवता भ्रमित हो आपके रहते क्यों

आप में अपार शक्ति व्यक्ति मान भजिए

मानवता न बिखरे निजी ज्ञान दीजिए।


धीरेन्द्र सिंह

19.07.2025

03.50

बुधवार, 16 जुलाई 2025

सत्य

 सत्य को पसंद कर्म की अर्चना है

स्वयं की अभिव्यक्ति ही सर्जना है

आत्मद्वंद्व प्रत्येक प्राणी स्वभाव भी

सहजता क्रिया में आत्म विवेचना है


अभिव्यक्तियों की हैं विभिन्न कलाएं

प्रत्येक कला प्रथम आत्म वंदना है

अभिव्यक्ति को बांध जीता है जो भी

क्या करे मनुष्य वह सही संग ना है


खुलने के लिए खिलना प्रथम चरण

खिल ना सके मन जीवन व्यंजना है

मुरझाए पुष्प लिए झूमती टहनियां हैं

सब जीते हैं कहते जीवन तंग ना है


एक दृष्टि से सृष्टि को न देखा जा सके

विभिन्नता ही भव्य जीवन अंगना है

स्वयं को निहारना मुग्ध मन से जो हो

समझिए जीवन घेरे सूर्यरश्मि कंगना है।


धीरेन्द्र सिंह

17.07.2025

10.39




तीन चरवाहे

 चेतना के चाहत के तीन चरवाहे

तीनों में होड़ लगी कौन आगे भागे


मनसा, वाचा, कर्मणा ही तीन प्रमुख

धरती, आकाश, पाताल जीव सम्मुख

इन तीनों में संतुलन बौद्धिकता मांगे

तीनों में होड़ लगी कौन आगे भागे


यश, कीर्ति, तीर्थ में निमग्न चेतनाएं

काम, क्रोध, मोह से मुक्ति को धाएं

अभिलाषाएं तुष्ट लगें या मन में पागें

तीनों में होड़ लगी कौन आगे भागे


काव्य, कथा, संस्मरण के सब शरण

लेखन की होड़ में गुणवत्ता का क्षरण

साहित्य सुजानता से खुले हिंदी भागे

तीनों में होड़ लगी कौन आगे भागे।


धीरेन्द्र सिंह

16.07.2025

17.53



मंगलवार, 15 जुलाई 2025

किसलिए

 हो आधा-आधा किसलिए

जरूरत से ज्यादा किसलिए

आपकी जागीर कब तलक

यह शान लबादा किसलिए


हर हलक में अनबुझी प्यास

सांस का इरादा किसलिए

जब तलक चल रहे है पांव 

थकन है पुकारा किसलिए


अपने-अपने हैं युद्ध सभी के

युद्धभूमि एक गवारा किसलिए

शस्त्र कभी शास्त्र लगते खास

रणकौशल वही सहारा किसलिए


चर्चा न हो समीक्षा भी नहीं

ऐसा व्यक्ति बेचारा किसलिए

अपनी धुन में जी रहे जितने

सोचे छोड़ा या दुलारा किसलिए।


धीरेन्द्र सिंह

15.07.2025

19.45







रविवार, 13 जुलाई 2025

अज्ञानी

 क्या सत्य लूट लेगा क्या धर्म की गहनता

यह मन बड़ा है छलिया मानव की सघनता

कर्म प्रचुर दूषित विचारों में भी नहीं दृढ़ता

व्यक्तित्व उलझा सा रह-रहकर है उफनता


बस स्वार्थ की ही दृष्टि अपनी जैसी हो सृष्टि

सभ्य, संस्कारी समझ खुद अन्य पर बरसता

ऐसे कई हैं लोग अभी सामान्य, नामी-गिरामी

न सोच का आधार जिसने सींचा वैसे बरसता


सब कुछ बदल रहा पर ऐसे लोग नहीं बदलते

जहां भी बैठे हैं वह परिवेश घुटन से कहरता

नई सोचवाला कर्म संग जुड़ा है अपनी माटी से

एक दृष्टांत नया हो अपने सत्य लिए फहरता।


धीरेन्द्र सिंह

14.07.2025

09.50


प्यार न तर्क

 प्यार करने को जी चाहे पर एज फर्क

उनको कोई कैसे समझाए प्यार न तर्क


बिन रिश्ते का यह बन जाता है रिश्ता

बन जाता रिश्ता तो प्यार हैं सिंकता

कौन भला है सोचता प्यार भी खुदगर्ज

उनको कोई कैसे समझाए प्यार न तर्क


बातें अगर सुहाती हों भाव भरे उत्कर्ष

चैट करते समय शब्द-शब्द खिलें सहर्ष

फिर चाहत में स्थान कहां पा जाता कुतर्क

उनको कोई कैसे समझाए प्यार न तर्क


कविता थी मेरी या थे मेरे काव्य विचार

मनोयोग से किया उन्होंने भाव सभी स्वीकार

कब कोई भा जाए कैसे बिना किसी शर्त

उनको कोई कैसे समझाए प्यार न तर्क।


धीरेन्द्र सिंह

13.07.2025

19.38





शनिवार, 12 जुलाई 2025

पहली बारिश

 जब पहली बारिश की बूंद मेरे चेहरे से टकराई

हवा महक दौड़ी सरपट भर अंग सुगंध अमराई

पहली छुवन तुम्हारी चमकी शरमाती सी घबड़ाई

बारिश प्यार का मौसम लगता नयन भरी चतुराई


चेहरा चिहुंक उठा यह कैसा गज़ब छुवन आभास

बूंद ठहर पल सरकी मृदु कोमल बोली ना दो दुहाई

सावन का यह अल्लहड़पन है पहली झमक बरसात

बदली डोली धरती बोली लो खिली प्रकृति अंगड़ाई


जब गहरे भावों से नयन तके मेरे चेहरे को अपलक

तब लगे बूंद टप्प गाल गूंजकर रोम-रोम सहलाई

तुम मिलती हो छा जाती घटा भाव बदलियां घनेरी

बारिश तो बस एक प्रतीक है तो मेरी सावनी दुहाई।


धीरेन्द्र सिंह

13.07.2025

08.57



लोकप्रियता

 यह लोकप्रियता यह साख यह प्रसिद्धियाँ

यह सक्रियता यह लाभ यह युक्तियाँ

कर्म का है पक्ष जिसको नकारना कठिन

व्योम में गुजर रही हैं असंख्य सूक्तियाँ


सद्प्रयास कुप्रयास दोनों की ही दौड़ बड़ी

व्यक्ति है दबा उलझा लिए मन नियुक्तियां

एक पहचान विधान बढ़ाए निज गुमान

शक्ति के मुक्ति की संयुक्त मन रिक्तियां


लक्ष्य की गंभीरता जड़ों की ओर खींचे

प्रशस्ति की गूंज बीच ख्याति अठखेलियाँ

कर्म है भ्रमित मूल ऊर्जा लगे शमित

धर्म के अध्याय में प्रचलित लोकोक्तियाँ


ए आई ऊपर से समेट रहा सृष्टि सजग

प्रौद्योगिकी प्रगति से चढ़ी व्यक्ति भृकुटियां

बुलबुले की ख्याति खातिर के प्रयत्नशील

प्रतिभा खंडित हो यूं बंटी बन टुकड़ियाँ।


धीरेन्द्र सिंह

12.07.2025

13.47




शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

नैतिकता

 आदर्श

अंतर्मन का संग्रहित

सत्य

सिद्धांत

समय के ठोकरों से

निर्मित अनुभव

नैतिकता

सामाजिक संचालन का

अधिसंख्य सीकृति रूप,

ऐसे में डोलता है, कांपता है

उछलता है दिल

और चाहता है

अपने सोच अनुरूप

आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता;


ऐसे लोग जो नहीं समझ पाते

साहित्य की विभिन्न विधाएं

जो नहीं कर पाते विश्लेषण

देह-आत्मा-परमात्मा और

लोक-परलोक का

उन्हें अश्लील लगती है रचनाएं

आए वह मौन रहते हैं

खिलखिलाती रचना

साहित्य तुरही संग 

रहती है मुस्कराती,


आत्मा और परमात्मा की

बात करनेवाले लोग

देह को समझते हैं हेय,

आश्चर्य होता है कि

अनेक समूह छोड़

साहित्य मंथन

नैतिकता का पाठ

पढ़ा रहे हैं,


साहित्य ऐसे समूह में

घुट रहा है,

बौद्धिक लेखन अनजानेपन,

अज्ञानता 

साहित्यिक संभावना को

लूट रहा हैं।


धीरेन्द्र सिंह

11.07.2025

20.07



मंगलवार, 8 जुलाई 2025

न जाने कब

 सोशल मीडिया

खत्म करे दूरियां

न जाने कब

परिचित लगने लगता है

एक अनजाना नाम

एक अनचीन्हा चेहरा

और बन जाता है

प्यार का धाम,


शब्द लेखन से

होती अभिव्यक्तियाँ

करती हैं

नव अनुभूति नियुक्तियां

मन होने लगता है

जागृत और सचेत,

होता है अंकुरित प्यार

दूरियों के मध्य,

रहते दोनों सभ्य,


बदलते परिवेश में

बदल रही सभ्यता

कुछ संस्कार

उत्सवी त्यौहार

और

मानवीय प्यार

ढंपी-छुपी चौखट

खुला हुआ द्वार

बदलने को आमादा

दीवारों की टूटन8

और

टूटता मन।


धीरेन्द्र सिंह

11.07.20२5

06.21





जनक

 तुम भावनाओं की जनक हो

तुम कविताओं की सनक हो

तुम व्याप्त सभी रचनाकारों में

तुम लिए साहित्य की खनक हो


आप संबोधन लिख न सका, चाहा

"तुम में" अपनापन की दमक हो

याद बहुत आ रही, झकोरा बन

तुम रचना पल्लवन की महक हो


जो रच पाता, सज पाता वह तुम

जग गाता वह गीत ललक हो

रचनाकार की तुम्हीं कल्पनाशक्ति

शब्दों की गुंजित मनमीत चहक हो।


धीरेन्द्र सिंह

09.07.2025

09.29