ढूंढो यहीं कहीं
कह रहा इसलिए
सुन लिया बतकही
मत पूछो मेरा पता
व्योम धरा है ज़मीं
यह स्व उन्माद नहीं
होती सब में कमी
रात्रि प्रहर में सोचना
चाहतों की है नमी
सोचता मन आपको
दिखती नहीं कभी।
धीरेन्द्र सिंह
11.10.202
22.02
एक सदाचार धारक व्यक्ति
अतिभ्रष्ट देश में जन्म ले
वह क्या कर पाएगा
तिनके सा बह जाएगा,
आश्चर्य
काव्य में उभरा
राजनीतिक नारा,
सभ्यता सूख रही
राजनीति ही धारा ;
हिंदी साहित्य भी
क्या राजनीति वादी है
सदाचार गौण लगे
राजनीति हावी है ;
कौन कहे, कौन सुने
अपनी पहचान धुने
समूह राजनीति भरे
मंच भी अभिमान गुने,
करे परिवर्तन
राजनीति करे मर्दन,
हिंदी उदासी है
नई भाषा प्रत्याशी है ;
देवनागरी लेखन की अंतिम पीढ़ी
अदूरदर्शी चिल्लाते हिंदी संवादी
भारतीय संविधान पढ़ लें तो
ज्ञात हो है हिंदी विवादित।
धीरेन्द्र सिंह
10.10.2025
19.19
गमन
वादियां
यदि प्रतिध्वनि न करें
नादानियाँ
यदि मति चिन्हित न रखें
कौन किसे फिर भाता है
मुड़ अपने घर जाता है
मुनादियाँ
यदि अतिचारी हों
टोलियां
यदि चाटुकारी हों
कौन पालन कर पाता है
मौन चालन कर जाता है
जातियां
यदि पक्षपात करें
नीतियां
यदि उत्पात करें
कौन सहन कर पाता है
मार्ग गमन कर जाता है।
धीरेन्द्र सिंह
10.10.2025
11.50
कोहराम है जीवन आराम कब करें
मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें
सब ठीक है ईश्वर की कृपा बनी है
कैसे कहे मन की अपनों में ठनी है
विषाद भरा मन अधर क्षद्म मद भरे
मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें
अभिभावक, दम्पत्ति भी करें अभिनय
सामाजिक दायरै में दिखावे का विनय
संतान देख परिवेश उसी ओर डग भरें
मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें
अपवाद कभी भी नियम नहीं होता
मुक्ति कहां देता कलयुग का गोता
वैतरणी कब मिलेगी है जग डरे
मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें।
धीरेन्द्र सिंह
19.12
09.10.2025
#कोहराम#मुस्कराएं#दम्पत्ति#वैतरणी
आपके व्यक्तित्व में ही अस्तित्व
निजत्व के घनत्व को समझिए
अपनत्व का महत्व ही तो सर्वस्व
सब कुछ स्पष्ट और ना उलझिए
प्रपंच का नहीं मंच भाव जैसे संत
शंख तरंग में भाव संग लिपटिए
हृदय के स्पंदनों में धुन आपकी
निवेदन प्रणय का उभरा किसलिए
आप ही से क्यों जुड़ा मन बावरा
दायरा वृहद था आपको जी लिए
आप समझें या न समझें समर्पण
अर्पण कर प्रभुत्व को तृष्णा पी लिए।
धीरेन्द्र सिंह
09.10.2025
06.35
मन की अंगड़ाईयों पर मस्तिष्क का टोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
तरंगों की चांदनी में प्रीत की रची रागिनी
शब्दों में पिरोकर उनको रच मन स्वामिनी
नर्तन करता मन चाहे बजे प्रखर हो ढोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
अभिव्यक्त होकर चूक जातीं हैं अभिव्यक्तियाँ
आसक्त होकर भी टूट जाती हैं आसक्तियां
यह चलन अटूट सा लगता कभी बस पोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
यह भी जाने वह भी माने प्रणय की झंकार
बोल कोई भी ना पाए ध्वनि के मौन तार
कहने-सुनने की उलझन मन का है किल्लोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल।
धीरेन्द्र सिंह
07.10.2025
21.26
#मन#चांदनी#उमड़-घुमड़#प्रणय#किल्लोल
अभिनय
अपूर्णता सुधार में सर्जक बन क्षेत्री
अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री
हम सब स्वभावतः अभिनय दुकान हैं
जितना अच्छा अभिनय उतना महान है
कामनाएं पूर्ति में सजग प्रयास की नेत्री
अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री
अब कहाँ सामर्थ्य बिन आवरण बहें
असत्य को सत्य सा प्रतिदिन ही कहें
बौद्धिक हैं विकसित हैं मानवता गोत्री
अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री
क्षद्म रूप विवशता है जग की स्वीकार्य
स्वार्थ ही प्रबल दिखावा कुशल शिरोधार्य
समाज प्रगतिशील हैं व्यक्ति बंद छतरी
अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री।
धीरेन्द्र सिंह
07.10.2025
04.31
आँधियाँ
प्रतिदिन दुख-सुख की आंधियां हैं
व्यक्ति तैरता समय की कश्तियाँ हैं
रहा बटोर अपने पल को निरंतर ही
कहीं प्रशंसा तो कहीं फब्तियां हैं
अर्चनाएं टिमटिमाती जुगनुओं सी
कामनाओं की भी तो उपलब्धियां हैं
हौसला से फैसला को फलसफा बना
दार्शनिकों सी उभरतीं सूक्तियाँ हैं
जूझ रहा हवाओं से लौ की तरह
पराजय में ऊर्जा की नियुक्तियां हैं
अपना जीवन रंग रहा बहुरंग सा
रंगहीन हाथ लिए कूंचियाँ है
अर्थ कभी सम्बन्ध तो मिली उपलब्धि
जिंदगी बिखरी इनके दरमियाँ हैं
वही नयन आज भी उदास से हैं
सख्ती बढ़ रही अब कहाँ नर्मियाँ हैं।
धीरेन्द्र सिंह
05.10.2025
16.39