बुधवार, 19 जुलाई 2023

विरह गीत

मुझसे मुझको कहने का अधिकार

छीन लिया कैसे वह, दब प्रतिकार

स्व की स्वरांजलि, नव भाव लिए

परकाया समझा था, कब स्वीकार


वातायन था मन, कलरव गुंजित

कुहुक बोल थे मिश्रित, रचि श्रृंगार

तोड़ दिए क्यों रहन सभी बन लाठी

परकाया समझा था, कब स्वीकार


रूप आकर्षण और नव देह मोह

ना बिछोह, दुःख ना, चीत्कार

चुपके से गहि मौन सिधारे

परकाया समझा था, कब स्वीकार


बदन दौड़ पर मन का ठौर यहीं

व्यक्तित्व गूंथ, अस्तित्व चौबार

बदले, जैसी हो बरसती बदरिया

परकाया समझा था, कब स्वीकार


सावन में डोले, झुलसी स्मृतियां 

बोले क्या मन, क्या अब दरकार

यह छल बोलूं क्यों, कि भूल गए

परकाया समझा था, कब स्वीकार।


धीरेन्द्र सिंह


19.07.2023

19.57

मंगलवार, 18 जुलाई 2023

सावन

 मेघों की मस्तियाँ व्योम भरमा गयी

आया सावन कि सलोनी शरमा गयी


वनस्पतियों में अंकुरण का जोर है

पहाड़ियां कटें संचरण में शोर है

मेरी बालकनी देख सब भरमा गयी

आया सावन कि सलोनी शरमा गयी


सावन में प्रकृति ही है निज प्रेमिका

पावन परिवेश में गूंजे है गीत प्रेम का

हृदय तंतुओं में रागिनी यूं समा गयी

आया सावन कि सलोनी शरमा गयी


निज अकेला बैठ प्रकृति निहार रहा

हवाओं की मस्ती या कोई पुकार रहा

पुष्प, पत्ती में निहत्थी बूंद नरमा गयी

आया सावन कि सलोनी शरमा गयी


हर किसी को ना आए समझ हया

हर कोई बूझे ना सावन मांगे दया

सुप्त भाव तरंगे उभर नव अरमां भयी

आया सावन कि सलोनी शरमा गयी।


धीरेन्द्र सिंह

19.07.2023

08.15