गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

यह कंस

 अनेक पत्र-पत्रिकाएं, समूह, मंच

सब के सब है हिंदी के सरपंच

इनके संचालनकर्ता क्या हिंदी कर्ता

हिंदी दिखावा हिंदी विभिन्न पंथ


कर्ता-धर्ता का अनभिज्ञ प्रयोजन

दिखावा ऐसा रचें नव हिंदी ग्रंथ

हिंदी शब्द का अकाल भाषा बेताल

प्रदर्शन प्रस्तुति जैसे अभिनव अनंत


कोई साहित्य सर्जक तो टाइमपास

रिपोर्टिंग ही करते बन साहित्यिक संत

कुछ तो बना बाजार लूट रहे हिंदी

प्रतीक, बिम्ब भूले हिंदी के यह कंस।


धीरेन्द्र सिंह

11.04.2025

02.34



बुधवार, 9 अप्रैल 2025

आखेटक

 कितना रचेगा कोई

जीवन अपना

कब तक

रहेंगी दौड़ती कामनाएं

हाथों में लिए टहनियां

और हांफती हांकती

खुद को, कि

निकल आएं फूल

सूखी टहनियों में,

जीवन

यही तो मांगता है,


कितना हंसेगा कोई

खिलखिलाकर 

होती है सीमा भी

और कैसे मूंद ले आंखें

परिवेश जा रहा बदला

हौले-हौले चुपचाप

और हो रही चर्चा

लगाएं उन्मुक्त ठहाके

अच्छा रहेगा स्वास्थ्य,

उत्सवी परिवेश में

क्षद्म यही चाहता है,


स्वयं के लिए

रच क्या दिए

तेल की तरह

भरते रहे दिए,

अब तो जाग जाओ

स्वयं की लौ जलाओ,

कामनाओं के तरकश पर

भावनाओं के तीर चलाओ,

मनुष्य मूलतः

आखेटक प्रवृत्ति का है

और मन

आखेट करना चाहता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2025

09.42


मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

किताबें

 किताबें

वैचारिक भंवर है

पाठक मन को

गोल-गोल घुमाते

उतारते जाती हैं

खुद के भीतर

और अंततः

पाठक

किताब हो जाता है,


किताबें

होती हैं दबंग

एक आवरण की तरह

लेती हैं दबोच

और बदल देती हैं

व्यक्ति की सोच,

प्रायः प्रतिकूल

यदा-कदा अनुकूल,


किताबें

बेची जा रही हैं

आलू-प्याज की तरह,

लगे हैं

प्रकाशकों के ठेले

रंग-बिरंगे और

लग जाती हैं मंडियां

पुस्तक मेला नाम से,

बेचना कठिन हो रहा

व्यक्ति खुद को पढ़ रहा,


किताबें

नशा हैं

बौद्धिक होने की बीमारी,

हर लिखनेवाला

करे छपने की तैयारी,

प्रकाशक की कटारी,


वर्तमान में

विद्यार्थी जीवन इतर

तोड़ देती हैं किताबें

व्यक्ति की मूल सोच,

रहता भटकता

किताबों के जंगल में

तार-तार कर अपनी शोध।


धीरेन्द्र सिंह

09.04.2025

08.00



सोमवार, 7 अप्रैल 2025

चाह

 अब भी तो बरसती हैं वैसी ही बदलियां

अब भी रहे हैं भींग पर वह बात नहीं

मनोभाव अब भी चाहे वही “अठखेलियाँ”

बदन की साध कहे, अब वह चाह कहीं


बूंदों में है फुहार ना बदलती हैं व्यवहार

सोंधी महकती मिट्टी, मेघ की छांह वही

एक सिहरन बदन बोलती थी पल-पल में

मन निरंतर बोल रहा, नेह की आह नहीं


न बदला मौसम न बदली पनपती युक्तियां

फिर क्या है बदला, किसी को ज्ञात नहीं

चाह की जेठ में तड़पती लगी हृदय धरा

मेघ लगे रहे रिझा, बूंदों की सौगात नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

07.04.2025

19.48