सुनो, मेरी मंजिलों की तुम ही कारवां हो
तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो
वह भी क्या दिन थे जब रचे मिल ऋचाएं
तुम भी रहे मौन जुगलबंदी हम कैसे बताएं
मैं निरंतर प्रश्न रहा उत्तर अपेक्षित बयां हो
तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो
सर्द अवसर को तुम कर देती थी कैसे उष्मित
अपनी क्या कहूँ सब रहे जाते थे हो विस्मित
श्रम तुम्हारा है या समर्पण रचित रवां हो
तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो
वर्तमान भी तुम्हारी निर्मित ही डगर चले
कामनाओं के अब न उठते वह वलबले
सब कुछ पृथक तुमसे फिर भी दर्मियां हो
तुम कहीं भी रहो पर तुम ही ऋतु जवां हो।
धीरेन्द्र सिंह
21.09.2025
22.27
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें