शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

स्तब्धता

 प्रेम पगता है मगन मन मेरे
और तुम पढ़ रही मेरी कविता
शब्द में भावनाओं का मंथन
कब समझोगी हो तुम ही रचिता

तुम्हारे स्पंदनों में हूँ मन साधक
और तुम कल्पनाओं की संचिता
एक परिचित नाम ही बन सका
कभी क्या लगता हो तुम वंचिता

प्रणय के पालने में रहा झूल हृदय
तुम्हारी आभा की पाकर दिव्यता
पहल अब और कितना हो कैसे
आओ न मिल रचें कई भव्यता

नई अनुभूतियों पर धुन बने नई
राग तो तुम हो करो आलापबद्धता
तुम हवा सी गुजर जाती हो छूकर
बाद देखी हो क्या मेरी स्तब्धता।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.2025
20.41
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