विवाह का समय है यह तो
सभी करते हैं भरपूर श्रृंगार
डॉक्टर भी कितने नासमझ
कहें सर्दी कारण हृदय विकार
पुरुष भी सलोन में जाकर सजते
अबके पुरुष छवि को देते संस्कार
नारी पारंपरिक सज्जा आधिकारिणी
कैसी लग रही हूँ पूछें होकर तैयार
सौंदर्य सुनियोजित प्रायः है बोलता
दृष्टि प्रशंसात्मक बिन यौन विकार
चाह कर भी बोल न पाए "क्या बात"
कान उमेठ देगा सामाजिक आचार
हृदय के लचीलेपन की है परीक्षा
वैवाहिक दिन में ऐसी होती झंकार
सजिए खूब चमकिए पर्व इसी का
स्वयं की सुघड़ प्रस्तुति भी अधिकार।
धीरेन्द्र सिंह
23.11.2025
19.22
