सोमवार, 5 जुलाई 2021

समय की वेदना

 समय की वेदना का यह अंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


नियति की गोद में निर्णय ही सहारा

उड़े मन को मिले फिर वही किनारा

हृदय के दर्द का अब यही रंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए

जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए

उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन

नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन

यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।


धीरेन्द्र सिंह

चूम जाओ

 ओ मन झूम जाओ

आकर चूम जाओ


बहुत नादान है यह मन

दहन धड़कन है सघन

सावनी व्योम लाओ

आकर चूम जाओ


परिधि जीवन का है बंधन

देहरी पर सजा चंदन

मर्यादा निभाओ

आकर चूम जाओ


शमित होती हर दहन

मन को चूमता जब मन

वादे ना भुलाओ

आकर चूम जाओ।


धीरेन्द्र सिंह


ओ सगुनी

 मेरी सांस चले एहसास रुके

कोई बात है या फिर कहासुनी

तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो

सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी


निस्पंद है मन लूटा मेरा धन

दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी

एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे

खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी


पग चलते हैं तुम ओर सदा

राहों ने खामोशी क्यों है बुनी

पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से

बगिया की मालन लगे अनसुनी।


धीरेन्द्र सिंह


हम ही तुम थे

 किसी को छोड़ देना भी 

सहज आसान इतना कि

जैसे दीप जल में प्रवाहित 

कामनाओं के,

लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं 

मन दीपक

छुवन की लौ है ढहती 

जल गर्जनाओं के,

हम ही तुम थे 

कि बाती दीप सजाए

तपिश बाती में धुआं भ्रमित 

अर्चनाओं के।


धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 4 जुलाई 2021

बाधित सम्प्रेषण

 शाम हसरतों की कर रही शुमारी

और गहरी हो रही फिर वही खुमारी

एक अकेले लिए चाहतों के मेले

कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी


प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर

ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी

सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे

काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।


धीरेन्द्र सिंह


शनिवार, 3 जुलाई 2021

कब बोलोगी

 चाहत की धीमी आंच पर

इंसान भी सिजता है,

तथ्य है सत्य है

आजीवन न डिगता है,

चाहत कब झुलसाती है

नैपथ्य बस सिंकता है,

कब बोलोगी इसी का इन्तजार

मन रोज तुमको ही लिखता है।


धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

खंडित अभिव्यक्तियाँ

 उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ

न तो समाज में

न साहित्य में,

नियंत्रण का दायरा

हर परिवेश में,

सभ्य और सुसंस्कृत

दिखने की चाह

घोंटती उन्मुक्तता

छवि आवेश में,

खंडित अभिव्यक्तियाँ

उन्मुक्तता के दरमियां

भावनाओं को कर रहीं

कुंठित,

मानव तन-मन अब

अंग-खंड आबंटित।


धीरेन्द्र सिंह