किसी को छोड़ देना भी
सहज आसान इतना कि
जैसे दीप जल में प्रवाहित
कामनाओं के,
लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं
मन दीपक
छुवन की लौ है ढहती
जल गर्जनाओं के,
हम ही तुम थे
कि बाती दीप सजाए
तपिश बाती में धुआं भ्रमित
अर्चनाओं के।
धीरेन्द्र सिंह
किसी को छोड़ देना भी
सहज आसान इतना कि
जैसे दीप जल में प्रवाहित
कामनाओं के,
लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं
मन दीपक
छुवन की लौ है ढहती
जल गर्जनाओं के,
हम ही तुम थे
कि बाती दीप सजाए
तपिश बाती में धुआं भ्रमित
अर्चनाओं के।
धीरेन्द्र सिंह
शाम हसरतों की कर रही शुमारी
और गहरी हो रही फिर वही खुमारी
एक अकेले लिए चाहतों के मेले
कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी
प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर
ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी
सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे
काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।
धीरेन्द्र सिंह
चाहत की धीमी आंच पर
इंसान भी सिजता है,
तथ्य है सत्य है
आजीवन न डिगता है,
चाहत कब झुलसाती है
नैपथ्य बस सिंकता है,
कब बोलोगी इसी का इन्तजार
मन रोज तुमको ही लिखता है।
धीरेन्द्र सिंह
उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ
न तो समाज में
न साहित्य में,
नियंत्रण का दायरा
हर परिवेश में,
सभ्य और सुसंस्कृत
दिखने की चाह
घोंटती उन्मुक्तता
छवि आवेश में,
खंडित अभिव्यक्तियाँ
उन्मुक्तता के दरमियां
भावनाओं को कर रहीं
कुंठित,
मानव तन-मन अब
अंग-खंड आबंटित।
धीरेन्द्र सिंह
मर्यादित जीवन
बदलता है केंचुल
एक चमकीली आभा खातिर,
इंसानियत का प्यार
रिक्त अंजुल
उलीचता रहता है अख्तियार
बनकर शातिर,
दौड़ने का भ्रम लिए
यह रेंगती जिंदगी।
धीरेन्द्र सिंह
शाम अजगर की तरह
समेट रही परिवेश
निगल गई
कई हसरतें,
आवारगी बेखबर
रचाए चाह की
नई कसरतें।
धीरेन्द्र सिंह
02.07.2021
शाम 06.17
लखनऊ
शाम अपनी जुल्फों में
लिए पुष्प सुगंध
हवा को करती शीतल
क्या दुलारती है सबको,
शाम करती है छल
निस दिन अथक
तोड़ती है भावनात्मक बंधन
दे अन्य के भावों का चंदन,
त्याग देती है
पुराने हो चुके को
नए से कर निबंधन,
अब शाम
नहीं रही पहले जैसी
अक्सर बोले
वादे और जिंदगी की
ऐसी-तैसी,
शाम अकुलाई है
नए को पाई
पुराने को ठुकराई है,
नहीं बीतती अब शामें
बहकी-बहकी बातों में
प्रणय अचंभित लड़खड़ाए
स्वार्थ सिद्ध के नातों में।
धीरेन्द्र सिंह
02.07.2021
शाम 06.40
लखनोए।