शनिवार, 22 मार्च 2025

लौट आए

 ब्लॉक करके भी खुल भूलते नहीं

याद आते हैं उनकी अदा तो नहीं

ब्लॉक कर दिया ढिंढोरा पीटे खूब

छपी किताबें जो वह धता तो नहीं


मास मीडिया को कर दिए निष्क्रिय

भय उनका अन्य की खता तो नहीं

अपनी गलतियों को भला देखे कौन

लहू निकला कहें कुछ किया ही नहीं


हुलसती चाहतें सब तोड़ने को आमादा

जो जोड़ा है नया उतना जंचा ही नहीं

मसखरी खरी-खरी भरती थी कड़वाहटें 

उसको छोड़ा तो लगा अब जमीं ही नहीं


लौट आए फिर साहित्य सजाने खातिर

मंच पर पीछे खड़े बात वह ही नहीं

हिंदी साहित्य के मंचों पर लौट आए

हिंदी जगत सा कहीं यह होता भी नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

22.03.2025

17.22

बुधवार, 19 मार्च 2025

छत बगीचा

 क्या खूब क्या उत्तम है यह सोचा

मुंबई में इमारतों पर होगा बगीचा


मूल कारण है पर्यावरण का नियंत्रण

स्थान नहीं, हो कहां पर वृक्षारोपण

छत पर सुविधा से जाता रहे सींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


अस्सी की दशक तक थी कहानियां

छत पर इश्क की नव कारस्तानियां

वह दौर लौट आया चाहत ने खींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


सूर्योदय हो या कि हो चांदनी रात

हमेशा बिखरा होगा मानव जज्बात

होगी प्रतियोगिता किसने क्या खींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


चाँद भी छत पर होगा चांदनी भी

राग प्रणय होगा खिली रागिनी भी

होगी सुरक्षित जगह ना ऊंचा नीचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा।


धीरेन्द्र सिंह

20.03.2025

08.33



मन में

 मेरे मन में

बस्तियां बेशुमार हैं

पता नहीं चलता

कहाँ से पुकार है,

पकड़ ही लेता हूँ स्त्रोत

दूर कहीं बहुत दूर

दिखता है चाँद

नहीं भी दिखता है,

चाँद ?

चाँद ही क्यों

सूर्य क्यों नहीं ?

और सितारे भी तो हैं,

देखो न तुम भी

अगर सुन रही हो मुझे,

सुनने के लिए

कान होना जरूरी नहीं

मन से भी तो सुनते हैं,


यह मन भी न 

चलती चाकी है

दरर-दरर करता 

कब किसको पीस दे

पता ही नहीं चलता,

अच्छा एक बात बताओ

क्या मैं नहीं पिसा पड़ा हूँ ?

नहीं दोगी उत्तर

उतर चुकी हो अपने भीतर

चाँद कर रहा है प्रयास

झांकने का

और सूरज चढ़ा आ रहा है।


धीरेन्द्र सिंह

20.03.2025

07.14



मंगलवार, 18 मार्च 2025

सुनि विलियम्स

 09 महीने तेरह दिन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


सुनि विलियम्स भारतीय मूल

इसीलिए मन देता उन्हें तूल

विगत हमारा अंतरिक्ष प्रवीण

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


नासा का यह वैज्ञानिक प्रभुत्व

हम खुश भारतीयता का प्रभुत्व

जीन प्रबल तो जीत हो अधीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


अंतरिक्ष की होंगी अनसुनी बातें

कैसा होता दिन वहां कैसी रातें

सुनीता कहेंगी बातें चुन गिन-गिन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


बिन गुरुत्वाकर्षण व्यक्ति हो तिनका

खाना-पीना-सोना, शोध का 9 महीना

तन-मन सब परिवर्तित होगा तल्लीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


गुजरात की बेटी ने किया कमाल

भारत ने न्यौता दिया आओ भाल

भारत विश्वगुरु है सुनि जैसे अधीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन।


धीरेन्द्र सिंह

19.03.2025

04.42

प्रतिक्रिया

 सोच रहा हूँ

अपनी रचनाओं पर

प्राप्त प्रतिक्रियाओं का

वृहद कोलाज बनाऊं

और मध्य में

बसा खुदका चित्र, फिर

जीवन का उल्लास मनाऊं,


कैसे पढ़ लेती हैं आंखें

शब्द पार्श्व के निरख सांचे

कैसे उन नयनों के प्रति

भावपूर्ण एहसास जताऊं,

लिखना तो आदत सब जैसी

भाग्य, मिली दृष्टि चितेरी

साहित्य का फाग रचाए,

निसदिन खुद को भींगता पाऊं,


कितने हैं साहित्य मर्मज्ञ

मैं तो मात्र समिधा सा,

गुंजित है वेदिका सुगंध

अनुभूति इन प्रथमा का,

अंतर्चेतना जगाते जाऊं,

तुम ना लिखती या आप कहूँ

बहुत करीब तो तुम आ जाए 😊

प्रतिक्रिया मेरा ध्यान का आसन

लेखन चेतना ऊर्जा पाऊं,


हे मेरे तुम 

तुम मुझमें और

मैं तुझमें गुम,

राह अंजोरिया

चाह नए पाता गाऊँ,

सहज नहीं प्रतिक्रिया लेखन

गूढता तक हो पैठन

भाव शब्द का ऊपर ऐंठन

ऐसा योग साहित्य समाहित

धन्य आप

नित प्रतिक्रिया पाऊं🙏


धीरेन्द्र सिंह

18.03.2025

18.10



सोमवार, 17 मार्च 2025

सखी

 वैचारिक बूंदें स्वाति नक्षत्र समान

भाव मिलन से निर्मित हो संज्ञान

अभिव्यक्तियां सृष्टि सदृश अनुगामी

कहना-सुनना भी व्यक्तिपरक विधान


इस समूह में नित सब, कुछ कहते

सबका, सब ना सुनते, देकर ध्यान

यहीं विचार प्रमुख होकर है कहता

शब्द से पहले है विचारों का रुझान


एक विषय पर एक भाव क्या लिखना

कविता है युवती चाहे भांति-भांति गहना

सजी-धजी नारी करती है ध्यानाकर्षण

अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करे निर्मित अंगना


कविता बहुत लजीली-सजीली अनुरागी

कविता आक्रामक जब हो कठिन सहना

तुमसी जैसी ही लगती है क्यों कविता

तुमको ही लिख दूं सखी फिर क्या कहना।


धीरेन्द्र सिंह

17.03.2025

22.22



रविवार, 16 मार्च 2025

हो ली

 जो लोग डर नहीं खेलते हैं होली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


आजकल आ रहे हैं कई रील

होली उत्सव या शारीरिक कील

रंगों में फसाद और गीला-गीली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


सबके मोबाइल में यही भरमार

यह कैसा है मोबाइली अत्याचार

न शालीनता न ही नटखट बोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


ऐसे रील त्यौहार के हैं दुश्मन

प्रेम गायब कुंठित भाव प्रदर्शन

रील भ्रमित करे दूषित हमजोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2025

12.26