बुधवार, 11 सितंबर 2019

मन की तूलिका

मन की तूलिका से
भावों में रंग
हो जाए विहंग
तुमको सजाकर
दुनिया को हटाकर,
कब स्वीकारा है तुमने
दुनिया के खपच्चे की बाड़ को
अपने अंदाज से
अपने जज्बात से
दुनिया की मनगढ़ंत आड़ से,

सौम्य, शांत मैदानी नदी सी
तुम गुजरो कभी पहाड़ों से
तो कभी मैदानी भाग से
हर समय दीप्त
तुम्हारी आग से,
यह आग
जाड़े की रात की आग
ऊपर से शांत
भीतर प्रज्ज्वलित भाग
एक संतुलन को बनाए हुए
खुद को अलमस्त जिलाए हुए,

तुम्हारी यह जीवंतता
कैसे देती है पीस
दुनिया के अवसादों को
अनमनी, अस्वीकार्य बातों को
इतनी सहजता से
कितनी सुगमता से
कि लगे
तुम समाधिस्त साधिका हो
खुद में खुद की आराधिका हो,

घर-परिवार के स्वाभाविक झंझावात
विद्वेष या नाराजगी
क्रोधित होते हुए भी
नहीं देखा इतने वर्षों में,
कहां संभव है
आज के युग में
यह संतुलन, यह सहजता
जग इसे पढ़कर भी
कपोल कल्पना है समझता
पर
जगत की नायाब अनुभूति
मेरे अधिकार में है
कथ्य की सार्थकता
उन्मुक्त जयकार में है,

सुनो
फिर एक मीठी झिड़की लगाओगी
दुनियादारी मुझे सिखाओगी
और कहोगी
निजी बातों को ही
क्यों लिखता हूँ
प्रिए
निरंतर तुम में
जो बहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह

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