गुरुवार, 28 मार्च 2019

ज़िन्दगी

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

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