रविवार, 21 नवंबर 2010

एक अर्चना निजतम हो तुम

सुंदर से सुंदरतम हो तुम, अभिनव से अभिनवतम हो तुम
आकर्षण का दर्पण हो तुम, शबनम से कोमलतम हो तुम:
ऑखों में वह शक्ति कहॉ जो, सौंदर्य तुम्हारा निरख सके
अप्रतिम मौन लिए मन में, स्नेह-नेह सघनतम हो तुम.

धीरे-धीरे धुनक-तुनक कर,शब्द तुम्हारे धवल, नवल नव
भाव बहाव का सुरभि निभाव, चॉदनी सी शीतलतम हो तुम:
मैं अपलक आतुर अह्लादित, पाकर साथ तुम्हारा निर्मल
तपती धूप की प्यास हूँ मैं, सावनी बदरिया गहनतम तुम.

जीवन जज्बा, किसका किसपर कब, अपनेपन का कब्ज़ा
मुक्त गगन सा खिले चमन सा, एक विहंग उच्चतम हो तुम
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व्यक्ति-व्यक्ति का, मानव भक्ति का, सौंदर्य शक्ति की सदा विजय
रिक्ति-रिक्ति आसक्ति प्रीति की, एक अर्चना निजतम हो तुम.

धीरेन्द्र सिंह.

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