गुरुवार, 6 नवंबर 2025

धुंध

 धुंध और गहरा हो रहा है

जीवन फिर भी

नहीं थमा है,

यह जीवन दृश्य है

व्यक्ति फिर भी

नहीं रमा है,


संबंधों की सर्दियां

ऐंठ रही है उन्मत्त

गर्माहट संघर्षरत है

तापमान संतुलन में,

एक अलाव जल नहीं रहा

सुलग रहा है

जिसका उठता धुआं

धुंध की कर रहा सहायता,


व्यक्ति इन जटिलताओं में

बना रहा पुष्पवाटिका

चहारदीवारी के बीच

और सोच रहा कि

जो खटखटाएगा

प्रवेश पाएगा,

सब कुछ गोपनीय है

पुष्पवाटिका भी

और सुगंध भी,


संबंधों की सर्दियों

गहराता कोहरा

अलाव से उठता धुआं

सब अस्पष्ट सा, अनचीन्हा सा

फिर भी व्यक्ति

हथेलियों में ऊष्मा छुपाए

भित्ति सा खड़ा है

ठिठुरते

एक पहल की

प्रतीक्षा में।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2025

05.22

बुधवार, 5 नवंबर 2025

आवाज

 सुनता हूँ प्रायः

अपने भीतर की आवाज़ें

जो मात्र मेरी ही नहीं

उन अनेक लोगों की है

आवाज

जो गुजरे हैं मेरे हृदय से,


अनेक छूट गए हैं

जीवन राह में,

अनेक शत्रु बन गए हैं 

अनेक तटस्थ भाव में हैं

जो पहले अभिन्न हुआ करते थे,

इनमें से कोई नहीं बोलता

कोई मोबाइल पर नहीं पुकारता

फिर भी

आती है आवाज,


आवाज ?

कोई बोलता नहीं तो

किसकी आवाज ?

कैसी जिह्वा ध्वनि?

यहां उभरा प्रश्न

क्या मात्र जिह्वा ही

माध्यम है ध्वनि का ?


हृदय में अनेक पदचिन्ह

बोलते हैं,

स्मृतियों के झोंके

कर जाते हैं बातें,

अब नहीं सुहाते

जिव्हा के बोल

क्योंकि मिलावट होने लगी है

शब्दों में, अर्थहीन, प्रयोजनहीन

इसलिए सच्ची लगती हैं

आ0ने भीतर की आवाज।


धीरेन्द्र सिंह

05.11.2025

21.40



गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

धर्मनिरपेक्ष

कभी अनुभव किया है आपने

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में

धर्म के स्पंदन,

होते हैं ऊर्जावान

नीतिवान

और सृष्टि संचयन में

निमग्न,


कभी देखा है आपने

धर्मों के धर्मपालक को

एक विशिष्ट रंग,

एक विशिष्ट ढंग,

एक अभिनव कार्यप्रणाली,

देते यथोचित उत्तर

यदि पूछे

कोई जिज्ञासू भक्त,


बदल दिए जाते हैं अर्थ

सार्थक अभिव्यक्तियों के,

चुपचाप बढ़ते पदचाप

और जतलाते हैं

वसुधैव कुटुंबकम को

विश्व जीतने का ख्वाब,

धर्म को दृढ़ता से

करना होगा स्थापित

अपनी परिभाषाएं,


अर्थ का अनर्थ न हो

अपने मन से क्यों अर्थ गढ़ो,

रोकता है धर्मनिरपेक्ष विचार,

नींव मजबूत है पर

होनी चाहिए सशक्त दीवार।


धीरेन्द्र सिंह

39.10.2025

19.33

अपने कदम

साथ कोई चलता नहीं, चले अपने कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीवन के अंकगणित में है जोड़ना-घटाना

लक्ष्य की चुनौतियों में प्रयास कष्ट घटाना

समझौतों की स्वीकार्यता कभी खुश तो सहम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


यदि बंधे नहीं मानव सहज न जी है पाता

एक भीड़ न हो परिचित जीवन लगे अज्ञाता

अपने को छोड़ सबसे जुड़ा लगे सशक्त कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीने की एक आदत को समझते हैं प्रायः प्यार

कितना चले कोई अगर छोड़ दे अपना पतवार

स्वार्थ अति महीन रूप में जाए पनपाते दहन

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम।


धीरेन्द्र सिंह

30.10.2025

19.25



बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

जरूरी है

 सुनो प्यार करने के लिए जानना जरूरी है

सितारे भरे आकाश हेतु जागना जरूरी है

सुलग गयी हृदय में भाव कुछ नई खिली

उस भाव से भी भागना कहो क्या जरूरी है


तुमसे मुझे प्यार है कहना नहीं है दबंगता

प्यार कसकर छुपा लें यह कैसी मजबूरी है

हृदय के स्पंदन कर रहें आपका अभिनंदन

चीख चिल्लाकर कहना प्यार क्या जरूरी है


हाँ जो बंध गए हैं बंधनों में समाज खातिर

ऐसे लोग नहीं मानव चर्चा क्या जरूरी है

व्यक्ति स्वयं के स्पंदनों संग जी ना सके तो

स्वतंत्र व्यक्ति नहीं वह उसकी बात अधूरी है


चंचल नहीं प्रांजल नहीं आदर्शवादिता नहीं

जीवन की सहज कामनाएं भी जरूरी है

सहज व्यक्ति सा सीमाओं संग उड़ रहे हैं

आप संग उड़ें ना उड़ें नहीं यह मजबूरी है।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2025

20.26


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

एक तुम

 चाहे तो जिंदगी समेट सब विषाद लें

चाहें तो बंदगी आखेट से प्रसाद लें

दर्द, दुख, पीड़ा की चर्चा समाज करे

चाहे तो हदबन्दगी में तुमसे उल्लास लें


व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी, पुरानी बात

प्रौद्योगिकी प्रमाणित जरूरी नहीं साथ लें

प्यार मनकों सा टूट रहा बिखर रहा बिफर

तृष्णा अपनी समझ परे फिर क्यों प्यास लें


चार लोग मिल गए उभर पड़ी वहां चतुराई

रंगराई की अंगड़ाई में तनहाई आजाद लें

तुरपाई की रीति निभाई बौद्धिक लुढ़कन

भौतिक ही यथार्थ का हितार्थ आस्वाद लें


कौन जिए उन्मुक्त घुटन की अनुभूतियाँ

एक तुम जिससे मनीषियों का नाद लें

सहज, शांत, सुरभित मिलने पर तुमसे

और कहीं भटकें तो परिस्थितियां विवाद दें।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2025

22.15


रविवार, 26 अक्टूबर 2025

पदचाप

जब हृदय वाटिका में गूंजे पदचाप तुम्हारे
टहनियां पुष्प की लचक अदाएं दिखलाती
कलियां खिल उठें मंद पवन सुगंधित चले
धमनियों में दौड़ पड़ो अलमस्त सी इठलाती

हृदय की धक-धक की पग लय जुड़ी थाप
सरगमी इतनी तुम कि धुन नई रच जाती
हृदय वाटिका झंकृत होकर झूमने लगता
पदचाप की छुवन अक्सर लगती मदमाती

आत्मा से आत्मा का प्यार अधूरा कथन है
देह से देह परिचय में नवरंग है झूम आती
आत्मिक परिणय की तुम हो जीवन संगिनी
हृदय वाटिका में बेहिचक नेह सी छा जाती।

धीरेन्द्र सिंह
27.10.2025
06.31