बहुत दूर से वह सदा आ रही है
उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है
छुआ भाव ने एक हवा की तरह
हुआ छांव सा एक दुआ की तरह
वह तब से मन बना आ रही है
उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है
सदन चेतना के हैं सक्रिय बहुत
मनन वेदना के हैं निष्क्रिय पहुंच
भावनाएं दूर की कैसे बतिया रही हैं
उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है
अक्सर कदम दिल के चलते चलें
कोई क्या नियंत्रण यह हैं मनबहे
चाहतें चलते मुस्का चिहुंका रही हैं
उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं
कल्पनाओं की अपनी है दुनिया निराली
यहां न रोकटोक है ना कोई सवाली
टाइपिंग यहां अपने में इतरा रही है
उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं।
धीरेन्द्र सिंह
06.01.2024
19.33
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