शनिवार, 16 मार्च 2024

एक खयाल

 एक खयाल का कमाल 

आप ही का है धमाल 

स्पंदनों की चाँदनी है 

दूरियों का है मलाल 


तुम कहो क्यों सोच 

विगत का ही सवाल 

ऐसी सोच से ही 

हृदय करता है बवाल 


सुन रही हो रागिनी

स्वर का है मलाल 

सप्तक हतप्रभ खड़े हैं 

भटक गए हैं ताल 


चलो एकराग अब बनें

गति हो सुगम द्रुतताल 

समन्वय ही राह जीवम

तुम सदा हो दृगभाल। 


धीरेन्द्र सिंह 

15.03.2024 

22.36

खोजते ही रहे

 कहाँ किसकी कब लगी यह दुआ 

कथानक अचानक नियामक हुआ


जो सोचा उसे खोजते ही रहे 

लोग ऐसे मिले रोकते ही रहे 

अब किसने हौले मन को छुआ

कथानक अचानक नियामक हुआ 


शब्द प्रारब्ध से हो रहा स्तब्ध 

भाव भी क्रमशः होते रहे ध्वस्त  

दिल रहा बोलता लगी है बददुआ 

कथानक अचानक नियामक हुआ 


सहजता सरलता सत्यता का सम्मान 

करे अभिव्यक्त जीवन के आसमान 

तापमान स्थिर शेष गया बन धुआं 

कथानक अचानक नियामक हुआ। 


धीरेन्द्र सिंह 

15.03.2024

14.48

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

गुलाब

 

चल गुलाब ढल गुलाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

अंगुलियों के स्पर्श बतलाएं

पंखुड़ियों भाव लिपट अंझुराएं

छुवन से जाने इश्क़ नवाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

मेरी हलचल गीत ढल गई

मीत मेरी अतीत बन गई

उनके मन हो जतन गुलाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

शब्द यूं महको करें कुबूल

भावना में लिपटे हैं फूल

इन फूलों से सज हों माहताब

हलचल सा तू बन गुलाब।


 

धीरेन्द्र सिंह

10.02.2024

21.44

व्यक्ति

 कल्पनाएं अथक पथिक

भाव से राहें रचित

लक्ष्य लंबा हो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


मैं से कौन है परिचित

रोम-रोम संपर्क जड़ित

सरायखाना हो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


शक्ति, भक्ति और युक्ति

यह स्थिर उसकी मुक्ति

प्रवाह नव वो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


बौद्धिक अति बौद्धिक वर्गीकरण

सबका सब ही हैं शरण

विभाजन अंजन ले गया

व्यक्ति कहीं खो गया।



धीरेन्द्र सिंह

10.02.2024

17.24

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

नारीत्व

 

अकेले स्व स्पंदित हूँ तो

लगे नारीत्व घेरा है

आत्म आनंद प्लावित हो

लगे यह कैसा फेरा है

 


भाव तब शून्य रहता है

लगे अव्यक्त अंधेरा है

एक अनुभूति कमनीय सी

सघन निजत्व डेरा है

 

प्रणय का पल्लवन कब कैसे

स्वाभाविक चित्त टेरा है

प्रणय क्यों बेलगाम सा

क्या यह एकल सवेरा है


निज पुरुषत्व आह्लादित प्रचुर

कहे क्या मेरा क्या तेरा है

सुजान सत्य से मिलता

जहां नारीत्व का घेरा है।

 

धीरेन्द्र सिंह

09.02.2024

09.45

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

फिर यार चलें

 अकुलाती चेतना में फिर वही बयार चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


भटक गया मन था नव आकर्षण पीछे

कहां वह प्रतिभा मुझ जैसे कोई सींचे

अब तुम सोच रही कैसे नई धार चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


युक्तियों से मुक्ति कहां मिल सकी किसे

सूक्तियों से सुप्त भावनाएं कब कहां रिसे

मन में धारित कल्पनाएं यथार्थ के हों सिलसिले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


आदिकाल, भक्तिकाल बीत गया प्यार का

बाल्यकाल, अल्हड़काल रीत गया धार का

आधुनिककाल में नव भाव छंदमुक्त चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


परिवर्तनों के दौर में चुस्त दिखें विकल्प

प्रत्यावर्तनों पर गौर कर मुक्त भाव संकल्प

तरंगों पर तृषित आस कयास संग बहते चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें।


धीरेन्द्र सिंह

08.02.2024


12.09

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

चाहतों की झुरमुट

 मुझे प्यार का वह सदन कह रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


ऐसी लचकन कहां देती है जिंदगी

चाहतों में समर्पण की जो बुलंदगी

कैसे साँसों में सरगम शयन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


कौन करेगा पहल प्रतीक्षा है बड़ी

जिंदगी देती क्यों है ऐसी कुछ घड़ी

मन में मन का ही गबन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


लोग क्या कहेंगे है सघन भी झुरमुट

अभिव्यक्तियों के भाल दें कैसे मुकुट

अनुभूतियां मृदुल यूं सघन कर रहे हैं

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे हैं


हां इधर भी तो तड़पन की हैं धड़कनें

चाह में उजास तो कहां हैं अड़चने

सघन व्योम का वह जतन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे।


धीरेन्द्र सिंह


06.02.2024

07.14