अकेले स्व स्पंदित हूँ तो
लगे नारीत्व घेरा है
आत्म आनंद प्लावित हो
लगे यह कैसा फेरा है
भाव तब शून्य रहता है
लगे अव्यक्त अंधेरा है
एक अनुभूति कमनीय सी
सघन निजत्व डेरा है
प्रणय का पल्लवन कब कैसे
स्वाभाविक चित्त टेरा है
प्रणय क्यों बेलगाम सा
क्या यह एकल सवेरा है
निज पुरुषत्व आह्लादित प्रचुर
कहे क्या मेरा क्या तेरा है
सुजान सत्य से मिलता
जहां नारीत्व का घेरा है।
धीरेन्द्र सिंह
09.02.2024
09.45
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