अकुलाती चेतना में फिर वही बयार चले
प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें
भटक गया मन था नव आकर्षण पीछे
कहां वह प्रतिभा मुझ जैसे कोई सींचे
अब तुम सोच रही कैसे नई धार चलें
प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें
युक्तियों से मुक्ति कहां मिल सकी किसे
सूक्तियों से सुप्त भावनाएं कब कहां रिसे
मन में धारित कल्पनाएं यथार्थ के हों सिलसिले
प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें
आदिकाल, भक्तिकाल बीत गया प्यार का
बाल्यकाल, अल्हड़काल रीत गया धार का
आधुनिककाल में नव भाव छंदमुक्त चलें
प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें
परिवर्तनों के दौर में चुस्त दिखें विकल्प
प्रत्यावर्तनों पर गौर कर मुक्त भाव संकल्प
तरंगों पर तृषित आस कयास संग बहते चले
प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें।
धीरेन्द्र सिंह
08.02.2024
12.09
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें