बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

फिर यार चलें

 अकुलाती चेतना में फिर वही बयार चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


भटक गया मन था नव आकर्षण पीछे

कहां वह प्रतिभा मुझ जैसे कोई सींचे

अब तुम सोच रही कैसे नई धार चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


युक्तियों से मुक्ति कहां मिल सकी किसे

सूक्तियों से सुप्त भावनाएं कब कहां रिसे

मन में धारित कल्पनाएं यथार्थ के हों सिलसिले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


आदिकाल, भक्तिकाल बीत गया प्यार का

बाल्यकाल, अल्हड़काल रीत गया धार का

आधुनिककाल में नव भाव छंदमुक्त चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


परिवर्तनों के दौर में चुस्त दिखें विकल्प

प्रत्यावर्तनों पर गौर कर मुक्त भाव संकल्प

तरंगों पर तृषित आस कयास संग बहते चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें।


धीरेन्द्र सिंह

08.02.2024


12.09

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