मुझे प्यार का वह सदन कह रहे
चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे
ऐसी लचकन कहां देती है जिंदगी
चाहतों में समर्पण की जो बुलंदगी
कैसे साँसों में सरगम शयन कर रहे
चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे
कौन करेगा पहल प्रतीक्षा है बड़ी
जिंदगी देती क्यों है ऐसी कुछ घड़ी
मन में मन का ही गबन कर रहे
चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे
लोग क्या कहेंगे है सघन भी झुरमुट
अभिव्यक्तियों के भाल दें कैसे मुकुट
अनुभूतियां मृदुल यूं सघन कर रहे हैं
चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे हैं
हां इधर भी तो तड़पन की हैं धड़कनें
चाह में उजास तो कहां हैं अड़चने
सघन व्योम का वह जतन कर रहे
चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे।
धीरेन्द्र सिंह
06.02.2024
07.14
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