मुट्ठी में भरकर शाम सिंदूरी सूरत
जो चलने लगा बीच बस्तियां
चमकने लगे कई सूरज नयन
खुल गए सारे दरवाजे खिड़कियां
तंग गलियों थी ठुसी बैठी चाल
समेटकर अपने भीतर अंधियार कश्तियाँ
ना सोती ना उठती लगातार जगती
एक सूरज की चाहत लिए हस्तियां
पकड़ हाँथ मेरा कोई एक बोला
सूरज से जुड़ी उन सबकी मस्तियाँ
दूजा बोला रुको जरा तो कहो
क्या लूटने को आमादा हैं गश्तियाँ
हाँथ छूटा जो सूरज, लपक सब पड़े
रोशनी में दिखी जिंदगी कुलबुलाती दरमियां
एक तड़प ले उठी, हुंकारती आवाज़ें
टुकड़ा-टुकड़ा हुआ सूरज,चाह को शुक्रिया।
धीरेन्द्र सिंह
04.02.2024
19.39
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