गुरुवार, 4 नवंबर 2010

हौले से सधे लफ्ज़ों से, उठती हरदम यह शरारत
तुम्ही वह
ठौर
हो, जो कानों मे करती रहे आहट.

कुछ भी ना सोचो, दिल से ज़रा
सोचो
मुझको
आसमॉ भी सिमट आता है, बड़ी चीज है चाहत.

मन को जुड़ना है तुमसे, तुम ही नदी व तीर हो
भँवर मे सोच फँसने की, उभरती है इक
घबराहट
.

ना वादे हैं, ना कसमें हैं, महज़ इक प्यार दीवाना
समंदर की लहरों की जैसे, किनारे से हो टकराहट.

इम्तिहॉ से कहॉ मिलता है, सवालों का कोई जवाब
जला देती है आहों से, सुलगती चाह की गरमाहट.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें