शब्द को उलीचते आदित्य हो गए
बिन तपे वह तो साहित्य हो गए
जो भी लिख दिए वह भाव गहन
लाईक टिप्पणियों सानिध्य हो गए
एक कोना रोशनी कृत्रिम कर वो
रचनाधर्मिता के आतिथ्य हो गए
यौन वर्जनाओं को प्रेम हैं कहते
बोल्ड लेखन के मातृत्व हो गए
दूसरों की प्रतिक्रिया अश्लीलता लगे
शोर मचाते वह स्त्रीत्व हो गए
धड़ाधड़ लेखन भ्रम साहित्य का
प्रदीप्त क्या लगे, कृतित्व हो गए
साहित्य सरणी का प्रस्फुटन वह
यह सोच समेट, निजत्व हो गए
हिंदी में कथाकार, कवि का घनत्व
अपनत्व छांव में कवित्व हो गए
हर रोज मंडली भजन भाव से मिले
कारवां सीमित में औचित्य हो गए।
धीरेन्द्र सिंह
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