मंगलवार, 9 सितंबर 2025

गीत सावनी

तृषित अधर है लोग किधर हैं
ऐसा क्या जो तितर-बीतर है
मेघा को बरसाओ न
गीत सावनी गाओ न

अगड़म बगड़म कैसा तिकड़म
गली-गली कस्बा और शहरम
मेधा और जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

हाथ कहां, अंगुलियां है गुदगुदाती
लक्ष्य भ्रमित, पर हैं पथ बतलाती
लक्ष्य को जगाओ न
गीत सावनी गाओ न

वृंदगान का पहर उभर बौराए
धुन उठ रही शब्द कौन रचाए
सरगमी गीत बनाओ न
गीत सावनी गाओ न।

धीरेन्द्र सिंह
09.09.2025
18.28






बुधवार, 3 सितंबर 2025

आओ मिलो

सब टूट रहे बनाने को अपनी पहचान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

हिंदी जगत में अब नित नए बनते मंच
मौलिकता के नाम पर करें हिंदी पर तंज
क्यों टूटकर बताना चाहें स्वयं को महान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

कुल पचास अधिकतम हिंदी रचनाकार
अनेक समूह में इन्हीं की है जारी झंकार
कुछ कॉपी पेस्ट कर करें हिंदी का सम्मान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान

आओ मिलो ना ऐसे टूटकर रहो बिखरते
चिंतन घर्षण दर्पण से मूल लेखन निखरते
अधिक्यम दस विशाल समूह ही लगें निदान
जो भीड़ संग चलता वही चतुर सुजान।

धीरेन्द्र सिंह
03.09.2025
18.49

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

अभियुक्त

 अभियुक्त


समूह में होकर भी समूह से ना मैं संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


हिंदी जगत के जंगल का हूँ एकल राही

दायित्व भाषा साहित्य का उसका संवाही

स्व विवेक ने मुझे स्वकर्म हेतु किया नियुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभिभूत


आग्रह था, मंच नाम रचना शीर्षक लिखें

छवि अपनी भी लगाएं, भूल रचना हदें

भाषा साहित्य संवरण में क्या यह उपयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त


जरा सी बात पर हिंदी लगा है तिलमिलाई

त्यजन कर बढ़ा वहां कुछ कहें है ढिठाई

हिंदी विधाओं का संवर्धन करें अब संयुक्त

जुड़ाव भूलकर कह उठे मुझे अभियुक्त।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

18.31



सोमवार, 1 सितंबर 2025

रात बहेलिया

 रात बहेलिया बनकर

अपना काला जाल

फेंक रही है

अति विस्तृत

अति महत्वाकांछी,

चांदनी नहीं आ रही

पकड़ में

जाल घूम रहा है

कुत्तों से बचते-बचाते

भौंकते झपटते हैं

जाल पर,


रात अभी तेजी से

दौड़ती गुजरी है

मेरे पास से

और में उठ बैठा

रात्रि के एक बजे,

चमगादड़ अलबत्ता

कर देते हैं उत्सुक

जाल को

और बहेलिया रात

लपक दौड़ती है

चमगादड़ में ढूंढने

चांदनी,


सन्नाटा वादियों की

गहराई से गहन है

सडकें लग रही है

खूबसूरत

दूर-दूर तक,

थकी निढाल उनीदी,

बहेलिया सम्भालस जाल

चार रहा है पकड़ना

चांदनी,


मुझे क्या

नींद आ रही है,

बौराया बहेलिया

दौड़ाता भागता रहेगा

भोर तक,

चांदनी ? फिर चांदनी कहां,

सोते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

02.09.2025

01.05






रविवार, 31 अगस्त 2025

आएंगे

 रोज ऐसे अगर आएंगे

हम बेपनाह संवर जाएंगे

मुझे दिखती है जिंदगी

बंदगी में उमर बिताएंगे


आने का है कई तरीका

सलीका भी बुदबुदाएँगे

अदाओं की देख आदत

उम्मीदगी का असर पाएंगे


आती है भोर किरणें 

उसमें ही नजर आएंगे

किरणों पर जीवन आश्रित

आनंदिगी से भर जाएंगे


सुबह राह तकती आंखें

वह आकर गुनगुनाएंगे

रच जाती नित कविता

पढ़ इसको मुस्कराएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

19 26





शनिवार, 30 अगस्त 2025

चल बैरागी

 संकुचित मर्यादाएं

दबंग संस्कार

व्यथित मनोकामनाएं

भूसकल त्यौहार


हर किसी का बाड़ा

लुकछुप व्यवहार

किसका किसपर उधार

कहां कब अख्तियार


सब जिएं ऐसे ही

जीवन लौ को दे बयार

सत्य उभरता ही कहाँ

सत्यवादी यह संसार


अकुलाहट विश्राम चाहे

सुखकर गोद की दरकार

चल बैरागी ठौर वही

जहां चिंगारियों का चटकार।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2025

06.31

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

कर्म का फल

 कर्म अब धर्म, अर्थ, भाषा आधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


सत्कर्म है संबंधित समाज, देश नियम

कर्म व्यक्तिजनित हतप्रभ अधिनियम

पाप-पुण्य समायाधीन जग में संचारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


जैसा कर्म वैसा फल प्रबुद्ध समाज का

भ्रष्टाचार जहां वहां परिणाम गजब का

मानवता सृजित निरंतर विकास पगधारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित


कलयुग का नाम ले कर्मधर्म कहें कंपन

मानवयुग उलझन में हो कहां समंजन

सब चले राह चले बांह छाहँ ना निर्धारित

कर्म का फल प्रश्नांकित है, विचारित।


धीरेन्द्र सिंह

29.08.2025

13.39