ओ मन झूम जाओ
आकर चूम जाओ
बहुत नादान है यह मन
दहन धड़कन है सघन
सावनी व्योम लाओ
आकर चूम जाओ
परिधि जीवन का है बंधन
देहरी पर सजा चंदन
मर्यादा निभाओ
आकर चूम जाओ
शमित होती हर दहन
मन को चूमता जब मन
वादे ना भुलाओ
आकर चूम जाओ।
धीरेन्द्र सिंह
ओ मन झूम जाओ
आकर चूम जाओ
बहुत नादान है यह मन
दहन धड़कन है सघन
सावनी व्योम लाओ
आकर चूम जाओ
परिधि जीवन का है बंधन
देहरी पर सजा चंदन
मर्यादा निभाओ
आकर चूम जाओ
शमित होती हर दहन
मन को चूमता जब मन
वादे ना भुलाओ
आकर चूम जाओ।
धीरेन्द्र सिंह
मेरी सांस चले एहसास रुके
कोई बात है या फिर कहासुनी
तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो
सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी
निस्पंद है मन लूटा मेरा धन
दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी
एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे
खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी
पग चलते हैं तुम ओर सदा
राहों ने खामोशी क्यों है बुनी
पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से
बगिया की मालन लगे अनसुनी।
धीरेन्द्र सिंह
किसी को छोड़ देना भी
सहज आसान इतना कि
जैसे दीप जल में प्रवाहित
कामनाओं के,
लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं
मन दीपक
छुवन की लौ है ढहती
जल गर्जनाओं के,
हम ही तुम थे
कि बाती दीप सजाए
तपिश बाती में धुआं भ्रमित
अर्चनाओं के।
धीरेन्द्र सिंह
शाम हसरतों की कर रही शुमारी
और गहरी हो रही फिर वही खुमारी
एक अकेले लिए चाहतों के मेले
कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी
प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर
ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी
सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे
काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।
धीरेन्द्र सिंह
चाहत की धीमी आंच पर
इंसान भी सिजता है,
तथ्य है सत्य है
आजीवन न डिगता है,
चाहत कब झुलसाती है
नैपथ्य बस सिंकता है,
कब बोलोगी इसी का इन्तजार
मन रोज तुमको ही लिखता है।
धीरेन्द्र सिंह
उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ
न तो समाज में
न साहित्य में,
नियंत्रण का दायरा
हर परिवेश में,
सभ्य और सुसंस्कृत
दिखने की चाह
घोंटती उन्मुक्तता
छवि आवेश में,
खंडित अभिव्यक्तियाँ
उन्मुक्तता के दरमियां
भावनाओं को कर रहीं
कुंठित,
मानव तन-मन अब
अंग-खंड आबंटित।
धीरेन्द्र सिंह
मर्यादित जीवन
बदलता है केंचुल
एक चमकीली आभा खातिर,
इंसानियत का प्यार
रिक्त अंजुल
उलीचता रहता है अख्तियार
बनकर शातिर,
दौड़ने का भ्रम लिए
यह रेंगती जिंदगी।
धीरेन्द्र सिंह