मन की अंगड़ाईयों पर मस्तिष्क का टोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
तरंगों की चांदनी में प्रीत की रची रागिनी
शब्दों में पिरोकर उनको रच मन स्वामिनी
नर्तन करता मन चाहे बजे प्रखर हो ढोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
अभिव्यक्त होकर चूक जातीं हैं अभिव्यक्तियाँ
आसक्त होकर भी टूट जाती हैं आसक्तियां
यह चलन अटूट सा लगता कभी बस पोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल
यह भी जाने वह भी माने प्रणय की झंकार
बोल कोई भी ना पाए ध्वनि के मौन तार
कहने-सुनने की उलझन मन का है किल्लोल
क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल।
धीरेन्द्र सिंह
07.10.2025
21.26
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