शनिवार, 10 सितंबर 2022

मन अधीर है

 शब्दों की गगरी में भावों के खीर हैं

ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है


एक अधर खीर का स्वाद बेजोड़ है

मन में बसा उसका होता न तोड़ है

चाहतें चटखती चढ़ रही प्राचीर हैं

ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है


दुनिया का जमघट अपना पनघट है

प्रीत की बयार मदहोशी तेरी लट है

जमाने के तरीकों में अपनी लकीर है

ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है


शब्द गगरियों की आपसी टकराहट

खीर भी मिल दिखलाती घबराहट

भावनाएं दूर कहीं अनजानी तीर हैं

ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है।


धीरेन्द्र सिंह


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