शब्दों की गगरी में भावों के खीर हैं
ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है
एक अधर खीर का स्वाद बेजोड़ है
मन में बसा उसका होता न तोड़ है
चाहतें चटखती चढ़ रही प्राचीर हैं
ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है
दुनिया का जमघट अपना पनघट है
प्रीत की बयार मदहोशी तेरी लट है
जमाने के तरीकों में अपनी लकीर है
ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है
शब्द गगरियों की आपसी टकराहट
खीर भी मिल दिखलाती घबराहट
भावनाएं दूर कहीं अनजानी तीर हैं
ओ प्रिये तुम कहाँ मन यह अधीर है।
धीरेन्द्र सिंह
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