पर्वतों के पत्थरों पर पड़ गयी पपड़ियां
एक मुद्दत से यहां कोई हवा न बही
व्योम में सूर्य की तपिश थी धरती फाड़
चांदनी पूर्णिमा में भी ना नभ में रही
क्या प्रकृति में भी होता षड्यंत्र कहीं
अर्चनाएं जीवन की पहाड़ी नदी बही
किस कदर जी लेती है इंसानियत भी
कल्पनाओं में चाह स्वप्न बुनती रही
अब न ढूंढो हरीतिमा पर्वत शिखरों पर
कामनाएं प्रकृति अवलम्बित उल्टी बही
एक हवा बन बवंडर सी चल रही है यहां
मगरूरियत विश्वास में राग वही धुनती रही।
धीरेन्द्र सिंह
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