कब चले थे, राह भी है भ्रमित
पांवों को दूरी का भी नहीं पता
कब निर्मित ही गयी यह दूरियां
वक़्त कहता समय से अब तो बता
प्रकति यह सम्पूर्ण है डगमगाती
कोई दिन मेहनत किसी को रतजगा
सब सुरक्षित पर असुरक्षित रहें
हर समय प्रहरी जीवन डगमगा
सत्य को तो भेदिए ले तर्क नए
भाव वंचित, खंडित तथ्य सुगबुगा
हरण भी अपहरण भी कब हो गया
और बंधन बढ़ रहे क्यों बुन बुना।
धीरेन्द्र सिंह
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