मंगलवार, 24 मई 2022

नदिया

कितनी मंथर चल रही नदिया भावनाएं तैर कर तट छू गयी यह प्रकृति है या नियति डगर चलन है अंदाज लट खो गयी तेज नदिया थी तो लट भी था लहरें केश संवारते घट चू गयी अब कहाँ श्रृंगार नदिया निपट खो कर मंजिल ललक सो गई और तट पर कंकड़ों से खेल डुप ध्वनि कंकड़िया भू भई झकोरों में तपिश कशिश नहीं नदिया है सामने हवा लू भई। धीरेन्द्र सिंह

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