कितनी मंथर चल रही नदिया
भावनाएं तैर कर तट छू गयी
यह प्रकृति है या नियति डगर
चलन है अंदाज लट खो गयी
तेज नदिया थी तो लट भी था
लहरें केश संवारते घट चू गयी
अब कहाँ श्रृंगार नदिया निपट
खो कर मंजिल ललक सो गई
और तट पर कंकड़ों से खेल
डुप ध्वनि कंकड़िया भू भई
झकोरों में तपिश कशिश नहीं
नदिया है सामने हवा लू भई।
धीरेन्द्र सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें