शनिवार, 9 अप्रैल 2011

बोल दो ना कब मिलूं


रूप हो तुम चाहतों की
निज मन की आहटों की
और अब मैं क्या कहूँ
और कितना चुप रहूँ

केश का विन्यास हो कि
अधरों का वह मौन स्पंदन
क्रन्दनी मन संग क्या करूँ
और कितना धैर्य धरूं

यह शराफत श्राप मेरा
लोक-लाज अभिशापी घेरा
मन वलयों को कितना गहूँ
और कितना जतन करूँ

प्रीत की खींची प्रत्यंचा
रीत है पकड़ी तमंचा
काव्य कितना और लिखूं
बोल दो ना कब मिलूं.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

10 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार। प्यार में प्रिय को रिझाती हुई सुन्दर रचना।

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  2. खुबसूरत अहसासों की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई

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  3. इम्तहां हो गई इंतजार की।
    बहुत खुब। सुन्दर रचना के लिए आभार।

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  4. ओह !!! इतना इंतज़ार इतनी अनुनय विनय. अच्छा है, कोशिश करते रहें कभी हाँ में भी जवाब आएगा

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  5. खुबसूरत अहसासों की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति|धन्यवाद|

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  6. काव्य कितना और लिखूं
    बोल दो ना कब मिलूँ...
    इतने प्यारे से मनुहार के बाद तो इंतजार ख़त्म हो ही गया होगा..:)
    सुन्दर प्यारी सी रचना..

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