रूप हो तुम चाहतों की
निज मन की आहटों की
और अब मैं क्या कहूँ
और कितना चुप रहूँ
केश का विन्यास हो कि
अधरों का वह मौन स्पंदन
क्रन्दनी मन संग क्या करूँ
और कितना धैर्य धरूं
यह शराफत श्राप मेरा
लोक-लाज अभिशापी घेरा
मन वलयों को कितना गहूँ
और कितना जतन करूँ
प्रीत की खींची प्रत्यंचा
रीत है पकड़ी तमंचा
काव्य कितना और लिखूं
बोल दो ना कब मिलूं.
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
शानदार। प्यार में प्रिय को रिझाती हुई सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंखुबसूरत अहसासों की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई
जवाब देंहटाएंkavya kitna likhun
जवाब देंहटाएंkab milu .... itni manuhaar, itna pyaar
इसरार करती सी रचना खूबसूरत लगी
जवाब देंहटाएंइम्तहां हो गई इंतजार की।
जवाब देंहटाएंबहुत खुब। सुन्दर रचना के लिए आभार।
ओह !!! इतना इंतज़ार इतनी अनुनय विनय. अच्छा है, कोशिश करते रहें कभी हाँ में भी जवाब आएगा
जवाब देंहटाएंखुबसूरत अहसासों की बहुत अच्छी अभिव्यक्ति|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबोल दो न कब मिलूँ ......):
जवाब देंहटाएंकाव्य कितना और लिखूं
जवाब देंहटाएंबोल दो ना कब मिलूँ...
इतने प्यारे से मनुहार के बाद तो इंतजार ख़त्म हो ही गया होगा..:)
सुन्दर प्यारी सी रचना..