एक काया अपनी सलवटों में भर स्वप्न
जीवन क्या है समझने का करती यत्न
झंझावातों में बजाती है नवऋतु झांझर
अपने सुख-दुख भेदती रहती है निमग्न
सृष्टि का महत्व अपने घनत्व तक तत्व
शेष सब निजत्व सबके अपने हैं प्रयत्न
कौन मुंशी किसकी आढ़त सत्य सांखल
देह अपनी अर्चना से दृष्टि गढ़ती सयत्न
अनुभूतियों की ताल पर देह का ही नृत्य
आत्मा अमूर्त अदृश्य मोक्ष भाव से संपन्न
अभिलाषाएं ले अपनी कुलांचें झूठे सांचे
कोई कहे तृप्ति लाभ तो कोई कहे विपन्न
काया ने भरमाया या काया से सब करपाया
मोह का तमगा लगा देह उपेक्षित आसन्न
आत्मा के पीछे दौड़ ईश्वर पर निरंतर तौर
काया, आत्मा भरमाती फिर भी सब प्रसन्न।
धीरेन्द्र सिंह
01.12.2025
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