बुधवार, 13 नवंबर 2024

यद्यपि

 यद्यपि तुम तथापि किन्तु

वेगवान मन कितने हैं जंतु


विकल्प हमेशा रहता सक्रिय

लेन-देन भावना अति प्रिय

आकांक्षाओं के अविरल तंतु

वेगवान मन कितने हैं जंतु


जड़ अचल झूमती डालियाँ

एक घर, हैं अनेक गलियां

व्यग्रता व्यूह निरखता मंजू

वेगवान मन कितने हैं जंतु


अपने को अपने से छुपाना

खुद से खुद का बहाना

जकड़न, अकड़न तड़पन घुमंतु

वेगवान मन कितने हैं जंतु।


धीरेन्द्र सिंह

14.11.2024

08.28



सोमवार, 11 नवंबर 2024

तल्लीन

 तल्लीन

सब हैं

अपने-अपने

स्वप्न संजोए

कुछ बोए, कुछ खोए;


खींचते जा रहा जीवन

परिवर्तित करते

कभी मार्ग कभी भाग्य

झरोखे से आती संभावनाएं

छल रही

दशकों से डुबोए,


मन को लगते आघात

देते तोड़ जज्बात

बात-बेबात

यह रिश्ते,

सगुन की कड़ाही में

न्यौछावर फड़क रहा

भुट्टे की दानों की तरह

उछाल पिरोए,


तल्लीन सब हैं

स्वयं को बहकाते

परिवेश महकाते,

कांधे पर बैठी जिंदगी

बदलती रहती रूप

कदम रहते गतिशील

कभी उत्साहित कभी सोए-सोए।


धीरेन्द्र सिंह

12.11.2024

08.15




रविवार, 10 नवंबर 2024

पगला

 प्यार कब उथला हुआ छिछला हुआ है

प्यार जिसने किया वह पगला हुआ है


एक धुन की गूंज में सृष्टि मुग्ध हर्षित

एक तुम हो तो हो अस्तित्व समर्पित

जिसने चाहा प्रेम जीना वह तो मुआ है

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है


सृष्टि भी देती भाग्यशालियों को पागलपन

कौन इस चलन में देता है अपनापन

परिवेश लगे खिला-खिला मन मालपुआ ही

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है


इसी पागलपन में रचित होती सर्जनाएं

मौलिकता गूंज उठे चेतना को हर्षाए

यह भी अद्भुत दिल ने दिल छुआ है

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है।


धीरेन्द्र सिंह

10.11.2024

20.28




शनिवार, 9 नवंबर 2024

छंट रहे

 जाने कितना झूमता ब्रह्मांड है

मस्तिष्क भी तो सूर्यकांत है

ऊर्जाएं अति प्रबल बलिहारी

भावनाएं इसीलिए आक्रांत है


दीख रहा जो दीनता का प्रतीक

पार्श्व में तो व्यक्ति संभ्रांत है

वेदनाएं रहीं लपक ले उछाल

अर्चनाएं सभी होती सुकांत है


लाभ, अहं, प्रसिद्धि लोक गुणगान

सदा सजग भाव तुकांत है

छल रहे, छंट रहे छलकते अपने

मत कहिए हाल यह दुखांत है


क्षद्मवेशी खप जाते सहज पकड़ा जाए

कुरीतियां ही रीतियाँ नव सिद्धांत है

पढ़ चुके कौन जाने कितना असत्य

लिख रहा जो जाने कैसा दृष्टांत है।


धीरेन्द्र सिंह

10.11.2025

02.29


गुरुवार, 7 नवंबर 2024

बना की मस्तियां

 अद्भुत, असाधारण, अनमोल हस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अपनी ही धुन के सब अथक राही

हर जगह मस्त शहर, गांव या पाही

यहां बिना न्याय उडें न्याय अर्जियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


थोड़ी सी ऐंठन थोड़ा सा है चुलबुला

आक्रामक बाहर दिखे भीतर रंग खिला

बातें बतरंग बहे बेरंग गली और बस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अबीर-गुलाल सा कमाल भाल हाल

बांकपन में लचक प्रेम की नव ताल

खिलखिलाहट नई आहट चाहतिक चुस्तियाँ

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

12.07

बना सपने

 कहां से कहां तक फैले हसीन अपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


दिल की हर खनक दर्शाते हैं बनारसी

जहां कहीं होते यह बन जाते सारथी

समूह संग मिलकर उत्थान लगते जपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


व्यक्तित्व भी कृतित्व भी भवितव्य भी

सबका कल्याण चाहें हर्षित हों सभी

जो भी खुलकर मिला गूंजे नाम अंगने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

11.57

आहट

 किसी गुनगुनाहट की आहट मिले

वही ताल धमनियां नचाने लगे

संयम की टूटन की आवाज़ें हों

यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे


न जाने यह कैसे उठी भावनाएं

अकेले ही क्यों हकलाने लगे

कभी लगे शोषित तो कभी शोषक

खुद से खुद को क्या जतलाने लगे


यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं

अधखुले चाह गहन धाने लगे

यह यादों का इतना तूफानी समंदर

किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे


कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में

मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे

ना मिले ना बोले पर यह अपनापन

बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

08.47