रविवार, 24 नवंबर 2024

आत्मा की भूख

 आत्मा की भूख जब भी हुंकार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्यार परिणय में मिले क्या है जरूरी

सामाजिकता संस्कृति की होती धूरी

वलय की परिक्रमाएं वही धार रहे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


यूं किसी से प्यार हो जाना असंभव

तार मन के जुड़ भरें निखार रच भव

एक धुआं दिल उठे लौ की पुकार करे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्रौद्योगिकी है देती प्रायः नव धुकधुकी

खींच लेता भय मन चाह लगाए डुबकी

अपना मन जब असीमित दुलार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे।


धीरेन्द्र सिंह

25.11.2024

08.46




शनिवार, 23 नवंबर 2024

जरूरी होना

 अचरज, सारथ, समदल संजोना

जरूरी होता है जरूरी होना


अब जग है सूचना संचारित

इंटरनेट पर है सकल आधारित

होता पल्लवित बस है बोना

जरूरी होता है जरूरी होना


अपना मूल्य जो करे निर्धारित

प्रायःसभा में नाम उसका पारित

छवि महान योग्यता लगे बौना

जरूरी होता है जरूरी होना


प्रबंधन शिक्षा न सिखला पाए

अनुभव दीक्षा से पाया जाए

खाट ठाठ से पहले बिछौना

जरूरी होता है जरूरी होना


तर्क, तथ्य का पथ्य जो धाए

धावत-धावत बस दावत पाए

चाहत, चुगली, चाटुकारिता डैना

जरूरी होता है जरूरी होना।


धीरेन्द्र सिंह

24.11.2024

09.10




शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

साहित्य

 साहित्य जब से स्टेडियम का प्यास हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


विश्वविद्यालय सभागार में खिलती संगोष्ठियां

महाविद्यालय कर स्वीकार करती थीं युक्तियां

यह दौर गलेबाजों युक्तिकारों का खास हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


साहित्य का अब विभिन्न बाजार बन गया

बिकता जो है उसका तय खरीददार धन नया

पुरानी रचनाओं का जबसे विपणन आस हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


सब हैं लिखते छपने, बिकने पुरस्कार के लिए

अंग्रेजी भाषा की लड़ियाँ हिंदी के टिमटिमाते दिए

रचनाकार तले रचनाओं का फांस हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


मॉल मल्टीप्लेक्स में एक संग कई फिल्में

इसी धुन पर स्टेडियम में साहित्य फड़कें

एकसंग कई प्रस्तुति साहित्य तलाश हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

22.11.2024

15.13



गुरुवार, 21 नवंबर 2024

रचना

 अति संवेदनशील पुरुष

जब कला के किसी विधा की

करता है रचना 

तब प्रमुख होती है नारी

उसके मन-मस्तिष्क में

बनकर सर्जना की ऊर्जा,


संवेदनाओं की तलहटी में

नहीं पहुंच सकता पुरुष

बिना नारी भाव के,

यदि साहस भी करे तो

रचता है उबड़-खाबड़

तर्क और विवेक मिश्रित

ठूंठ भाव,


पुरुष जब करता है

लोक कला का सृजन

मूल में संजोए

नारी भाव

तब निखर उठती है

एक मौलिक रचना

और अपनी पूर्णता पर

हो खुश

रचना हाँथ मिलाती है

अपने सर्जक से,


प्रत्येक रचना होती है

नारी तुल्य गहन, विस्तृत

जीवंत और व्यवहारकुशल

प्रति पल।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2024

23.05




बुधवार, 20 नवंबर 2024

अच्छा दिखना

 कैसी हो

मन ने कहा

तो पूछ लिया,

तुरंत उनका उत्तर आया

ठीक हूँ, आप कैसे हैं,

बहुत अच्छा लगा 

आपका मैसेज पढ़कर,

अभी अमेरिका में हूँ

वह बोलीं;


मेरी परिचितों में

सबसे सुंदर दिखनेवाली

मित्र हैं मेरी,

अपने व्यक्तित्व को

नहीं आता प्रस्तुत करना

सबको,

यह निष्णात हैं

निगाहों को स्वयं पर

स्थिर रखने का 

कौशल लिए;


जीवन की

लंबी बातचीत बाद

वह बोलीं

“मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है 

अच्छा दिखना, सेल्फी लगाना

 अच्छा पहनना, 

पता नहीं उससे कब उबर पाऊंगी”

मैंने टाइप किया

“कितनों को आता है अच्छा दिखना

अपने आप को जो जानता है,

 अपने को प्यार करता है 

वही स्वयं को संवार सकता है,

 इसे मत छोड़िएगा क्योंकि

 यह अभिव्यक्ति है आपकी

 यह आपकी अपने स्व की पूजा है”


उसने मुस्कराहट भेज दी

इमोजी संग और बोली

“सेल्फी तो लगते ही इसलिए कि 

लोग देखे तो, 

कोई शिकायत ही नहीं है किसी से”

कहां मिल पाता है ऐसा

उन्मुक्त विचार और सर्जना, प्रायः,

वह टाइप की

“चलिए शुभ रात्रि 

आपके यहां रात हो गई 

हमारी सुबह है”


नारी के इस व्यक्तित्व में 

घूमती रही कविता

और शब्द उभारने लगे

अपने विविध गूढ़ भाव

और जिंदगी

देखती रही मुझे।


धीरेन्द्र सिंह

20.11.2024

21.09




मंगलवार, 19 नवंबर 2024

नगाड़ा

 जिसका जितना सहज नगाड़ा

उसका उतना सजग अखाड़ा


प्रचार, प्रसार, विचार उद्वेलन

घर निर्माण संग चौका बेलन

भीड़ जुटाएं सिखाएं पहाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा


अक्कड़-बक्कड़ बॉम्बे खो

दिल्ली, बंगलुरू संजो तो

बनाए कम अधिक बिगाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा


हिंदी की हैं दुकान सजाए

अभिमान प्रतिमान बनाए

बेसरगमी बेसुरा लिए बाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा।


धीरेन्द्र सिंह

19.11.2024

19.29


सोमवार, 18 नवंबर 2024

सर्द पंक्तियां

 सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


चाह की चाय

आह की चुस्कियां

गर्माहट मंद हुई

क्यों हमारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


कौतूहल चपल है

कयास की सरगर्मियां

फुँकनी लील गया करेजा

क्यों हमारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


मनभर लोटा दिए उलीच

चाह कटोरा रिक्तियां

सजल सत्यकाम अनाम

क्यों हनारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ।


धीरेन्द्र सिंह

18.11.2024

10.47