मंगलवार, 9 जनवरी 2024

चली गई

 कौन जाने कौन सी बला टल सी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


सुबह होते ही व्हाट्सएप पर झंकार

प्रीतमयी संवेदना का आदर सत्कार

नित नए अंदाज चाहे बातें भी नई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


मैंने नहीं मेरे घर ने भी दिया दुत्कार

हिम्मती थी वह प्रतिदिन की अभिसार

चेतना में वेदना की संवेदना लड़ी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


वर्ष तक किया उसकी चंचलता पर वार

इधर-उधर फुदकने से मानी ना हार

एक संग कई को घुमाती गली गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


अब मस्तिष्क मुक्त सजाए निस सर्जनाएं

साहित्य में घटित वही भाव लिखते जाएं

पकड़ ली, जकड़ ली लहर थी डंस गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई।


धीरेन्द्र सिंह

09.01.2024


18.56

सोमवार, 8 जनवरी 2024

मालदीव हो गए

 कैसे कहें वह आत्मिक सजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


भव्यता में सम्मिलित अभिनव योगदान

अभिव्यक्तियों में फूंके मिल चेतना प्राण

विवादखिन्नता में भ्रमित परजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


पहले था समर्पण प्राप्त करता अनुराग

लक्षदीप सा गूंजा और हो गया विवाद

झूठे गुरुर में आधार निर्जीव बो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


उपकार और सम्मान में हो मदांध

सोचकर बढ़े है सशक्त दूजा कांध

 देखते ही देखते वह अतीत हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


यह था सतत प्रयास उसी राह लौट आएं

पहले की तरह उन्मुक्त होकर खिलखिलाएं

सोशल मीडिया छोड़ रिक्त नींव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए।


धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024


22.34

ना मानें

 तृषित है अधर मगर रीत न्यारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह रचना नहीं एकल सद्प्रयास

रहे दो हृदय एक-दूजे के निवास

बोया कोई काटे जबर तरकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


ना बोलें रहें चुप पूछें जो कुछ

क्या प्रणय प्रवृत्ति होता है गुपचुप

करें विरोध खाएं कसम महतारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह तृष्णा अजब कई लोग बेसमझ

स्व में ही सरोवर पर लहर की अरज

स्वीकारना ही है क्या आत्म आरी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


बहकने भटकने की नव डगर है

कहो और कितनों पर रखे नजर है

वही संग हो जो उमंग प्रीतकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

06.31

रविवार, 7 जनवरी 2024

छोरी

 चाहत की इतनी नहीं कमजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


गर्व के तंबू में तुम्हारा है साम्राज्य

चापलूसों संग बेहतर रहता है मिजाज

सत्य के धरातल पर क्षद्मभाव बटोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


उम्र कहे प्रौढ़ हो, किशोरावस्था लय है

जहां भी तुम पहुंचो, तुम्हारी ही जय है

तुम हो तरंग बेढंग की मुहंजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


राह अब मुड़ गयी इधर से उधर गयी

झंकृत थी वीणा अब रागिनी उतर गयी

सर्जना के शाल ओढ़ाऊँ न सिंदूरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


आत्मा से आत्मा का होता विलय

तुम ढूंढो आत्मा में दूजा प्रणय

सुप्त यह गुप्त, निरंतर है लोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

08.48

क्या करूँ

 चांदनी बादलों से अचानक गयी सिमट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


प्यार उर्ध्वगामी इसकी प्रकृति ना अवनति

यार मात्र एक ठुमकी सहमति या असहमति

प्यार ना सदा मृदुल राह यह है विकट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


आज भी आकाश में दौड़ रहे हैं मेघ

चांदनी कब मिले, क्या लगाएं सेंध

द्विज में ही गति, बूझना कठिन त्रिपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


चांदनी है चंचला चांद को न आभास

जलभरे बादलों में भी है अनन्य प्यास

प्रेम एक से ही होता बोलता विश्व स्पष्ट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट


एक प्रतीक्षा प्यार का दिव्यतम अभिसार का

नभ में नैतिकता के भव्यतम स्वीकार का

यदि प्रणय प्रगल्भ तो चांदनी चुम्बक निपट

क्या करूँ व्योम से बोला बादल लिपट।


धीरेन्द्र सिंह


07.01.2024

19.44

शनिवार, 6 जनवरी 2024

अक्षत

 दरवाजे की घंटी ने जो बुलाया

देख सात-आठ लोग चकमकाया

ध्यान से देखा तो केसरिया गले

कहे राममंदिर हेतु अक्षत है आया


श्रद्धा भाव से बढ़ गयी हथेलियां

लगा कोई नहीं मेरे राम दरमियां

राममंदिर फोटो संग इतिहास पाया

जो देखता पढ़ता था वह अक्षत है आया


कुहूक एक उठी सारी गलियां जगी

राम कण-कण में अक्षत की डली

बारह दीपक जलाने का था निदेश

 कह जै श्रीराम बढ़ गयी वह टोली


व्यक्ति में भी प्रभुता हुई दृष्टिगोचित

राम मर्यादा से हो भला क्या उचित

राम से ही सृजित संचित आत्म बोली

भजन गूंज उठा दिया ताल मन ढोली


सर्जना की अर्चना का भव्यता साक्षात

अक्षत बोल पड़ा सनातन ही उच्छ्वास

भारत संग विश्व गुंजित हो प्रीत मौली


विवाद निर्मूल सारे जीव राम टोली।


धीरेन्द्र सिंह

07.01.2024

08.28

बहुत दूर से

 बहुत दूर से वह सदा आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


छुआ भाव ने एक हवा की तरह

हुआ छांव सा एक दुआ की तरह

वह तब से मन बना आ रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


सदन चेतना के हैं सक्रिय बहुत

मनन वेदना के हैं निष्क्रिय पहुंच

भावनाएं दूर की कैसे बतिया रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही है


अक्सर कदम दिल के चलते चलें

कोई क्या नियंत्रण यह हैं मनबहे

चाहतें चलते मुस्का चिहुंका रही हैं

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं


कल्पनाओं की अपनी है दुनिया निराली

यहां न रोकटोक है ना कोई सवाली

टाइपिंग यहां अपने में इतरा रही है

उन्मुक्त कभी वह लजा आ रही हैं।


धीरेन्द्र सिंह


06.01.2024

19.33