डबडबा जाती हैं आंखें
क्या कहूँ, कैसे कहूँ
बस लगे मैं बहूँ;
एक प्रवाह है
बेपरवाह है
जीवन की थाह है;
बस हुई मन की बातें
डबडबा जाती हैं आंखें।
धीरेन्द्र सिंह
25.03.2022
अपराह्न 01.40
डबडबा जाती हैं आंखें
क्या कहूँ, कैसे कहूँ
बस लगे मैं बहूँ;
एक प्रवाह है
बेपरवाह है
जीवन की थाह है;
बस हुई मन की बातें
डबडबा जाती हैं आंखें।
धीरेन्द्र सिंह
25.03.2022
अपराह्न 01.40
अखबार सी जिंदगी
खबरों सा व्यक्तित्व
क्या यही अस्तित्व ?
लोग पढ़ें चाव से
नहीं मौलिक कृतित्व
क्या यही अस्तित्व ?
संकलित प्रभाव से
उपलब्धि हो सतीत्व
क्या यही अस्तित्व ?
प्रलोभन मीठी बातें
फिर यादों का कवित्व
क्या यही अस्तित्व ?
तिलांजलि असंभव है
तिलमिलाहट भी निजित्व
क्या यही अस्तित्व ?
धीरेन्द्र सिंह
25.03.2022
पूर्वाह्न 08.00
बरसते नभ से धरा विमुख
प्रांजलता वनस्पतियों में भरी
मेघ के निर्णय हुए नियति
प्रकृति भी है खरी-खरी
टहनियों पर मुस्कराते पुष्प हैं
पत्तियां झूम रहीं, हरि की हरी
उपवन सुगंध में उनकी ही धूम
भ्रमर अकुलाए कहां है रसभरी
पहले सा कुछ भी नहीं अब
बंजरता व्यग्र, कहां वह नमी
नभ का दम्भ या धीर धरा
विश्व की पूर्णता है लिए कमी।
धीरेन्द्र सिंह
24.03.2022
17.15
यूक्रेन
हिम्मत और हौसला
रूस
आधिपत्य का फैसला,
याद आया महाभरत
युद्ध कौशल की महारत
रणनीतियों का जलजला
यह विश्व कहां चला,
प्रखर वही व्यक्तित्व
है जिसका शीर्ष अस्तित्व
दूरदर्शी ना मनचला
रूस विश्व की कला,
वसुधैव कुटुम्बकम
विस्तारवाद का कदम
पढ़ाने की चतुर कला
भारत का हो भला,
बदल रही परिस्थितियां
अधूरा इतिहास दरमियाँ
कितना बहा और लगे गला
त्यजन, काल को गले लगा,
यूक्रेन
युद्ध कौशल आयातित
रूस
भारत भी सोचे कदाचित।
धीरेन्द्र सिंह
23.02.2022
र
आह! प्रणय
ओह! प्रणय
भावनाओं की नर्मियाँ
दो दिलों के दरमियाँ;
मन के गुंथन
चाहत हो सघन
कैसी यह खुदगर्जियाँ
दो दिलों के दरमियाँ
कह रही धड़कनें
बढ़ रही तड़पनें
मिलन की सरगर्मियां
दो दिलों के दरमियाँ
व्यर्थ है प्रतिरोध
सजग है निरोध
सुसज्जित हैं अर्जियां
दो दिलों के दरमियाँ।
धीरेन्द्र सिंह
लता मंगेशकर - सुर देवी - श्रद्धांजलि
संगीत की आत्मा
चल गई जग छोड़
श्रद्धांजलि पूछे यह
क्या इसका है तोड़
युग है भरा-पुरा
सुरों का मशवरा
स्वर यह बेजोड़
क्या इसका है तोड़
सुरों की आराधना
गीत छाया घना-घना
सरगमों का आलोड़
क्या इसका है तोड़
साधिका का गमन
सरगमें संकलित सघन
कहें गयी क्यों मुहं मोड़
क्या इसका है तोड़।
धीरेन्द्र सिंह
पूर्वाह्न 10.55
अहसान के दालान में
गौरैया का खोता है,
जेठ की धूप खिली
मन सावन का गोता है;
खपरैले छत छाई लतिकाएं
पदचिन्ह दालान भरमाएं
दृष्टि कहे बड़ा वह छोटा है
सूना पड़ा गौरैया खोता है;
फिर वही पाद त्राण अव्यवस्थित
कौन है व्यक्तित्व फिर उपस्थित
मन के हल से नांध तर्क जोता है
झूम रहा क्यों आज खोता है।
धीरेन्द्र सिंह