शुक्रवार, 25 जून 2021
वह आई थी
बुधवार, 23 जून 2021
प्यार मर गया
प्यार
कोरोना काल में
काल कवलित,
दिलजलों ने कहा
कैसे मरा,
स्वाभाविक मृत्यु
या मारा किसी ने,
कौन समझाए
प्यार मरता है
अपनी स्वाभाविक मृत्यु
भला
कौन मार सका ,
प्यार तो प्यार
कुछ कहें
एहसासी तो कुछ आभासी,
भला
कौन समझाए
दूर हो या पास
होता है प्यार उद्गगम
एहसास के आभास से,
मर गया
स्मृतियों के बांस पर लेटा
वायदों का ओढ़े कफन
उफ्फ़ कितना था जतन।
धीरेन्द्र सिंह
सोमवार, 21 जून 2021
टहनियां
डालियां टूट जाती हैं
लचकती हैं हंस टहनियां
आप समझे हैं समझिए
कैसी इश्क की नादानियां
एक बौराई हवा छेड़ गई
पत्तों में उभरने लगी कहानियां
टहनियां झूम उठी प्रफुल्लित
डालियों में चर्चा दिवानियां
गुलाब ही नहीं कई फूल झूमे
फलों को भी देती हैं टहनियां
डालियां लचक खोई ताकती
गौरैया आए चहक करे रूमानियां।
धीरेन्द्र सिंह
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस आज
होता सहज नहीं विश्वास
कल तक अनदेखी विद्या का
आज सकल सिद्ध है राज
योगी रामदेव की महिमा मुस्काए
एक चना का है यह अंदाज
एक ब्रह्म एक ही आत्मा एकं अहं
विस्मित निरखे परवाज
अथक परिश्रम अथक सहयोग
फला_फूला विस्तृत हुआ योग
भारत विश्व योग गुरु बन स्थापित
संचालित नित घर_घर यह योग।
धीरेन्द्र सिंह
शनिवार, 19 जून 2021
फेसबुकिया बीमारी
मैं नहीं जा पाता हूं
सबकी पोस्ट पर
देने अपनी हाजिरी
कभी टिप्पणियां
अक्सर लाइक,
यह भीड़ तंत्र
साहित्य की
फेसबुकिया बीमारी है
कल तुमने किया लाइक
तो आज मेरी बारी है,
मन की रिक्तता
नहीं होती जब संतुष्ट
भावों को अभिव्यक्ति दे
तब भागता है मन
भीड़ की ओर
लोग आएं और मचाएं
निभावदारी का शोर,
नहीं गाता हूं
दूसरों के लिए
बेमन गाने, टिप्पणियां, लाइक
भ्रमित प्रशंसा काल में
साहित्य की धूनी
बुला लेती है खुद ब खुद
समय के एक भाग को।
धीरेन्द्र सिंह
मेरी सर्वस्व
प्यार उजियारा पथ, डगर दर्शाए
आपकी रोशनी से जिंदगी नहाई है
तृषित न रह गई तृष्णा कोई अपूर्ण
तृप्ति भी आकर यहां लगे शरमाई है
पथरीली राहें थीं कंकड़ीली डगरिया
बनकर मखमल तलवों तक पहुंच आई है
ऐसी शख्सियत मिलती भला कहां
चांदनी भी है और अरुणाई है
रुधिर के कणों में डी एन ए तुम्हारा भी
खानदानी बारिश सा तुम भिंगाई हो
तुम्हें सर्वस्व कह दिया तो सच ही कहा
संपूर्णता संवरती तुम्हारी जगदाई है।
धीरेन्द्र सिंह
बुधवार, 16 जून 2021
विश्लेषक
शर्तें तुम्हारी होती थीं
बालहठ मेरा
तुम विश्लेषक रिश्ते
मैं एक चितेरा,
कलरव की संध्या बेला में
अनगढ़ दृश्य बिखेरा
समूह में लौटते पक्षी
देते दार्शनिक टेरा,
मनगढ़ जीवन ऊबड़_खाबड़
निर्धारित ही है बसेरा,
भ्रमित भाग्य या कर्म उन्मत्त
क्या ले जाए मेरा,
जिसकी बगिया वही है माली
बेहतर मेरा डेरा।
धीरेन्द्र सिंह