सोमवार, 13 दिसंबर 2010

क्यों इतनी दूर हो गईं

अर्चनाएँ अब एक दस्तूर हो गई
खुशियाँ हक़ीकत की नूर हो गई;
इंतज़ार अब तपती धरती सा लगे
बदलियॉ ना जाने क्यों मगरूर हो गई

एक आकर्षण सहज या कि बेबसी महज़
असहजता ज़िंदगी का सुरूर हो गई
एक तपन की त्रासदी की चेतना संग
बारिशों की खातिर जमीं मज़बूर हो गई

क्या यही प्रारब्ध मेरा बन गया है
निस्तब्धता भी लगे गरूर हो गई
कामनाएं पुष्प की देहरी ना चढ़े
आराधनाएं अटककर हुजूर हो गई

चाह के आमंत्रण की अविरल गुहार
राह की रहबर तो चश्मेबद्दूर हो गई
सांत्वनाएं अर्थ अपना छोड़ने लगी हैं
आप मुझसे क्यों इतनी दूर हो गईं.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

मुलाकात नहीं होती है

अब कहीं और कोई बात नहीं होती है
भ्रमर-फूलों में अब सौगात नहीं होती है
भावनाएं भी प्रदूषित हो रहीं उन्माद के तीरे
धड़कनों की शर्मीली मुलाकात नहीं होती है

मिले और जुड़ गए मानों पुराना रिश्ता हो
तेज जीवन में अनुराग का क्यों बस्ता हो
प्रलोभन से घिरे मन में बरसात नहीं होती है
निगाहों में छुपाए शाम मुलाकात नहीं होती है

कभी गीतों में ढलकर नई धुन बन जाएं
सांस की तारों पर शबनमों को सजाएं
दो हृदयों में अब पदचाप नहीं होती है
अब मंदिर के बहाने मुलाकात नहीं होती है

प्रौद्योगिकी में है डूब रहा कोमल स्पंदन
प्रगति, उपलब्धि में दमित मानवीय वंदन
यंत्रवत काम में दिलबात नहीं होती है
चांदनी भी ठिठके यह मुलाकात नहीं होती है.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

एक शाम

शाम की तलहटी में, आहटों का सवेरा है
डूबते सूरज की मूरत में, छिपा वही चितेरा है
शाम की ज़ुल्फें खुली, हवा भी बौराई है
धड़कनें बहकने लगी, चाहत लगे लुटेरा है

दिनभर की थकन, एक अबूझा सा दहन
हल्की-हल्की सी चुभन, सबने आ घेरा है
कदम भी तेज चले, नयनों में दीप जले
लिपट लूं ख्वाहिशों से, वह सिर्फ मेरा है

ज़िंदगी भागती तो लड़खड़ाती, दौड़ रही 
अपने पल, अपने मन की, मधुमय रेखा है
सिमट लूं संग उनके, पल दो पल चुराकर
आज की बात करूं, कल किसने देखा है.

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

गुंईया बन गए हम

अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान 
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी   देह गंध भी बुलंद है

एक अगन हौले से  गगन उतर आई है

मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली

समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की  रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.

एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में   निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.

इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं

कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

शब्दों से छलके शहद

शब्दों से छलके शहद फिर हद कहॉ
वेदना तब गेंद सी लुढ़कती जाए
एक छाया बाधाओं को नापती पग से चढ़े
एक सिहरन हंसती नस में उछलती जाए

भावों के आलोड़न में निहित झंकार है
शब्दों की अलगनी पर बूंदे मटकती जाएं
ताल, लय पर नृत्य करता यह मन बावरा
जैसे हरी दूबों से परती एक भरती जाए

दो नयन मुग्धित मगन हो रसपान करें
होंठों पर स्मिति से वेदना को छीना जाए 
सावनी फ़िजाएं आएं जब मिलो तुम झूम के
शब्द से लिपट यह मन निरंतर भींगा जाए.

सोमवार, 29 नवंबर 2010

हम ढूंढते हैं खुद को


कब-कब लगी है आग, दिल की दुकान में
बोल रही हैं चिपकी राख, मन के मचान में.

पहले जब था तन्हा तो, थी तनहाई की जलन
मनमीत की तलाश में, थी मिश्री जबान में.

कब वो मिले, कब मिले-जुले, खबर ना लगी
टूटता है बन्धन भी, दिल के सम्मान में.

रेत पर अब भी हैं गहरी, हमसाथ की लकीरें
चाहत चमकती रहती है,  मौसमी तूफान में.

तब भी कहा गया नहीं, अब भी ना बोल निकले
हम ढूँढते हैं ख़ुद को, ख़ुद  के ही अरमान में.

रविवार, 28 नवंबर 2010

मेंहदी

खिल-खिल हथेलियों पर, मेहँदी खिलखिलाए रे
अपनी सुंदरता पर, प्रीत बिछी जाए रे,
कुहक रही सखियॉ सब, कोयलिया की तान सी
हिय में नया जोश भरा, छलक-छलक जाए रे

मेहँदी सब देखे, सब जाने-बूझे बतिया
अँखियन के बगियन में, सपन दे सजाए रे
ऐसी निगोड़ी बनी, छोरी छमक सखियॉ सब
साजन का नाम ले, हिया दे बहकाय रे

अधरों पर सजने लगे, सावनिया गान सब
सॉवरिया सजन अगन, दिया दहकाय रे,
बरसा की बूंदे भी, छन-छन कर उड़ जाए
बदन के ऑगन में, नया राग बजा जाए रे.