अभी भी सलवटें सुना रहीं हैं दास्तान
मौसम ने ली थकन भरी अंगड़ाई है
चादर में लिपटी देह गंध भी बुलंद है
एक अगन हौले से गगन उतर आई है
मन के द्वार पर है बुनावट सजी रंगीली
समा यह बहकने को फिर बौराई है
खनकती चूड़ियों में प्रीत की रीत सजी
उड़ते चादर में सांसो की ऋतु छाई है.
एक अनुभव में ज़िन्दगी, बन्दगी सी लगे
शबनमी आब है, मधु बनी तरूणाई है
छलकते सम्मान में निज़ता का आसमान है
चादर पर पसरी रोशनी फिर खिलखिलाई है.
इस चादर में हमारे गागर के हिलोरे हैं
कुछ अपने हैं कुछ सुनामी दे पाई है
बांटने से गुनगुनाए ज़िन्दगी की धूप
गुंईया बन गए हम यह बोले तरूणाई है.
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
शब्दों से छलके शहद
शब्दों से छलके शहद फिर हद कहॉ
वेदना तब गेंद सी लुढ़कती जाए
एक छाया बाधाओं को नापती पग से चढ़े
एक सिहरन हंसती नस में उछलती जाए
भावों के आलोड़न में निहित झंकार है
शब्दों की अलगनी पर बूंदे मटकती जाएं
ताल, लय पर नृत्य करता यह मन बावरा
जैसे हरी दूबों से परती एक भरती जाए
दो नयन मुग्धित मगन हो रसपान करें
होंठों पर स्मिति से वेदना को छीना जाए
सावनी फ़िजाएं आएं जब मिलो तुम झूम के
शब्द से लिपट यह मन निरंतर भींगा जाए.
वेदना तब गेंद सी लुढ़कती जाए
एक छाया बाधाओं को नापती पग से चढ़े
एक सिहरन हंसती नस में उछलती जाए
भावों के आलोड़न में निहित झंकार है
शब्दों की अलगनी पर बूंदे मटकती जाएं
ताल, लय पर नृत्य करता यह मन बावरा
जैसे हरी दूबों से परती एक भरती जाए
दो नयन मुग्धित मगन हो रसपान करें
होंठों पर स्मिति से वेदना को छीना जाए
सावनी फ़िजाएं आएं जब मिलो तुम झूम के
शब्द से लिपट यह मन निरंतर भींगा जाए.
सोमवार, 29 नवंबर 2010
हम ढूंढते हैं खुद को
कब-कब लगी है आग, दिल की दुकान में
बोल रही हैं चिपकी राख, मन के मचान में.
पहले जब था तन्हा तो, थी तनहाई की जलन
मनमीत की तलाश में, थी मिश्री जबान में.
कब वो मिले, कब मिले-जुले, खबर ना लगी
टूटता है बन्धन भी, दिल के सम्मान में.
रेत पर अब भी हैं गहरी, हमसाथ की लकीरें
चाहत चमकती रहती है, मौसमी तूफान में.
तब भी कहा गया नहीं, अब भी ना बोल निकले
हम ढूँढते हैं ख़ुद को, ख़ुद के ही अरमान में.
रविवार, 28 नवंबर 2010
मेंहदी
खिल-खिल हथेलियों पर, मेहँदी खिलखिलाए रे
अपनी सुंदरता पर, प्रीत बिछी जाए रे,
कुहक रही सखियॉ सब, कोयलिया की तान सी
हिय में नया जोश भरा, छलक-छलक जाए रे
मेहँदी सब देखे, सब जाने-बूझे बतिया
अँखियन के बगियन में, सपन दे सजाए रे
ऐसी निगोड़ी बनी, छोरी छमक सखियॉ सब
साजन का नाम ले, हिया दे बहकाय रे
अधरों पर सजने लगे, सावनिया गान सब
सॉवरिया सजन अगन, दिया दहकाय रे,
बरसा की बूंदे भी, छन-छन कर उड़ जाए
बदन के ऑगन में, नया राग बजा जाए रे.
अपनी सुंदरता पर, प्रीत बिछी जाए रे,
कुहक रही सखियॉ सब, कोयलिया की तान सी
हिय में नया जोश भरा, छलक-छलक जाए रे
मेहँदी सब देखे, सब जाने-बूझे बतिया
अँखियन के बगियन में, सपन दे सजाए रे
ऐसी निगोड़ी बनी, छोरी छमक सखियॉ सब
साजन का नाम ले, हिया दे बहकाय रे
अधरों पर सजने लगे, सावनिया गान सब
सॉवरिया सजन अगन, दिया दहकाय रे,
बरसा की बूंदे भी, छन-छन कर उड़ जाए
बदन के ऑगन में, नया राग बजा जाए रे.
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
हुस्न की साजिश
एक हुस्न की साजिश है
एक अदा की है रवानगी
सब कुछ निखर रहा है
दे दी क्या यह दीवानगी
अपनी डगर की मस्तियों में
बिखरी रहती थी चॉदनी
तारों में अटके ख्वाब कुछ
घुलती रहती थी रागिनी
अब कहॉ गया है दिल
कहॉ गई वह सादगी
किसकी राह तके ऑखें
पसरी हुई बस बेचारगी
शोला लपक गया यकायक
खिलने लगी है बेखुदी
अब हुस्न का दरिया बसेरा
और चाहत भरी आवारागी
एक अदा की है रवानगी
सब कुछ निखर रहा है
दे दी क्या यह दीवानगी
अपनी डगर की मस्तियों में
बिखरी रहती थी चॉदनी
तारों में अटके ख्वाब कुछ
घुलती रहती थी रागिनी
अब कहॉ गया है दिल
कहॉ गई वह सादगी
किसकी राह तके ऑखें
पसरी हुई बस बेचारगी
शोला लपक गया यकायक
खिलने लगी है बेखुदी
अब हुस्न का दरिया बसेरा
और चाहत भरी आवारागी
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
विवाहेतर सब्ज बाग
जब भी मिलतें हैं, होती हैं सिर्फ बातें
एक दूजे से हम खुद को छुपाते हैं
घर गृहस्थी की हो जाती है चर्चा
ना वह रुकते ना हम कह पाते हैं
जीवन के मध्य में भी ऐसा होता है
हम उन्हें बुलाएं वह मुझे सताते हैं
एक पीपल में बांध आई डोर सुना
तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं
एक आकर्षण खींच रहा क्यों मुझको
क्यों विवाहेतर सब्ज बाग हम बनाते हैं
जब दिखी लौ पतिंगा सी बेबसी पाया
लिख कविता पतिंगे सा गति पाते हैं
फिर सुबह होते ही वह उभर आते हैं
कभी गंभीर दिखें, कभी मुस्कराते हैं
बेबसी दिल की जो समझे वही जाने
जिंदगी युग्म है और भावों के फ़साने हैं.
एक दूजे से हम खुद को छुपाते हैं
घर गृहस्थी की हो जाती है चर्चा
ना वह रुकते ना हम कह पाते हैं
जीवन के मध्य में भी ऐसा होता है
हम उन्हें बुलाएं वह मुझे सताते हैं
एक पीपल में बांध आई डोर सुना
तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं
एक आकर्षण खींच रहा क्यों मुझको
क्यों विवाहेतर सब्ज बाग हम बनाते हैं
जब दिखी लौ पतिंगा सी बेबसी पाया
लिख कविता पतिंगे सा गति पाते हैं
फिर सुबह होते ही वह उभर आते हैं
कभी गंभीर दिखें, कभी मुस्कराते हैं
बेबसी दिल की जो समझे वही जाने
जिंदगी युग्म है और भावों के फ़साने हैं.
बुधवार, 24 नवंबर 2010
जब से मिला हूं...
जब से मिला हूँ आपसे, रूमानियत छा गई है
खामोशी भाने लगी है, इंसानियत आ गई है.
खयालों में, निगाहों में, चलीं रिमझिमी फुहारें
वही बातें, वही अदाऍ, रवानियत भा गई है.
धड़कनों में समाई है, खनकती गुफ्तगू अपनी
खयालों में उलझी सी, एक कहानी आ गई है.
बहुत मुश्किल है अब और, छुपाना दिल में
मेरे अंदाज़ में आपकी, जिंदगानी छा गई है.
आपका अलहदा नूर, करे मदहोश चूर-चूर
खुद से चला दूर, ऋतु दीवानी बुला गई है.
खामोशी भाने लगी है, इंसानियत आ गई है.
खयालों में, निगाहों में, चलीं रिमझिमी फुहारें
वही बातें, वही अदाऍ, रवानियत भा गई है.
धड़कनों में समाई है, खनकती गुफ्तगू अपनी
खयालों में उलझी सी, एक कहानी आ गई है.
बहुत मुश्किल है अब और, छुपाना दिल में
मेरे अंदाज़ में आपकी, जिंदगानी छा गई है.
आपका अलहदा नूर, करे मदहोश चूर-चूर
खुद से चला दूर, ऋतु दीवानी बुला गई है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)