जब मन
छोड़ने लगता है
किसी को,
दर्द मिलता है
तब
हर हंसी को;
भागती जाती है
जिंदगी
होते जाते हैं
कद छोटे,
जीवन गति स्वाभाविक
सागर भरे लोटे;
नहीं आती याद
खिलखिलाहट, बतकही,
कौन बोले पगली
झुंझलाहट झगड़े की बही ;
नहीं कहता मन
पूछें योजना अगली;
हर धार को अधिकार
मन अपने बहे,
चाहे संग नदी चले
या किनारे को गहे,
मोड़ एक मुड़ना
फिर क्या सुने क्या कहे।
धीरेन्द्र सिंह
07.04.2022
13.34
बहुत सुंदर कविता
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