भावों का प्रवाह है, मन भी लिए आह
भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह
चांद भी धूमिल, सूरज ओझल, सन्नाटा
कलरव अनुगूंज नहीं पर सैर सपाटा
तुम संग युग्म तरंगित, ढूंढे कोई थाह
भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह
अंगड़ाई के अद्भुत तरंग, जैसी निज बातें
कितना कुछ कर दी समाहित, क्यों बाटें
दूर बहुत है, सुगम न मिलती कोई राह
भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह
तुम उभरी क्या, छुप गए सूरज-चांद
रैन बसेरा कर, जागा सुप्तित उन्माद
युग्मित भाव हमारे, भरे भोर में दाह
भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह।
बरखा चूमी सड़कें, दिसंबर एक माह
भोर भींगी लपकी, शीतल हवा की बांह।
धीरेन्द्र सिंह
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