दो साँसों के जहां में एकनिष्ठ हो जाऊंगा
इतने लुभावन में कैसे सृष्टि से बच पाऊँगा
प्रीत की रीति में मनमीत की होती
प्रतीति
रीति से भटका तो अतीत मैं बन जाऊंगा
एक चाहत में चौतरफा बन्दिशें अनगढ़
राह बहके ना, हो एकाधिकार बढ़चढ़
घुटन इतनी तो कैसे सुरभि जाल पाऊँगा
प्यासे सुरों में कैसे गीत ढाल पाऊँगा
प्यार कब ठहरा कब रुकी यह दुनिया
यार है गहरा, चाहा जब
झुकी दुनिया
शक्ति असीमित विजय कहाँ पाऊँगा
हार कर ही प्रीति पताका फहराऊंगा
एक समर्पण राधा-कृष्ण सरीखा
जैसा
मिला सौंदर्य बना दिल सूर्यमुखी जैसा
खुद से खुद को खींचते कैसे चल
पाऊँगा
एकनिष्ठता हटो वरना ढल जाऊंगा
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
एक समर्पण राधा-कृष्ण सरीखा जैसा
जवाब देंहटाएंमिला सौंदर्य बना दिल सूर्यमुखी जैसा
खुद से खुद को खींचते कैसे चल पाऊँगा
एकनिष्ठता हटो वरना ढल जाऊंगा
badhiyaa
प्रीत की रीति तो ऐसी ही है जहाँ पाने से ज्यादा खोने में संतुष्टि है.
जवाब देंहटाएंसुंदर भावमयी प्रस्तुति.