शनिवार, 11 जनवरी 2025

तासीर

 मत आइएगा मैसेंजर पर मेरे

तासीर आपकी मुझको है घेरे


एक दौर मिला था बन आशीष

किस तौर बातें जाती थीं पसीज

यूं मैसेंजर देखूं सांझ और सवेरे

तासीर आपकी मुझको है घेरे


इंटरनेट पर भी खेत सरसों फूल

पुष्पवाटिका जिसमें चहचाहट मूल

हम थे चहचहाये लगा अपने टेरे

तासीर आपकी मुझको है घेरे


भावनाओं की डोली का नेट कहार

दुर्गम राह पर भी चले कदम मतवार

वो बातें वो लम्हे जैसे आम टिकोरे

तासीर आपकी मुझको है घेरे।


धीरेन्द्र सिंह

09.01.2025

07.13



शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

उलाहना

 वैश्विक हिंदी दिवस पर मिला उनका संदेसा

थी कोमल शिकायत नव वर्ष संदेसा न भेजा


क्या करता, क्या कहता, उन्होंने ही था रोका

कुछ व्यस्तता की बातकर चैट बीच था टोका

सामने जो हो उनको सम्मान रहता है हमेशा

थी कोमल शिकायत नव वर्ष संदेसा न भेजा


कहां मन मिला है किसमें उपजी है नई आशा

लगन लौ कब जले संभव कैसे भला प्रत्याशा

कब किसके सामने लगे गौण होता न अंदेशा

थी कोमल शिकायत नव वर्ष संदेसा न भेजा


हृदय भर उलीच दिया तरंगित वह शुभकामनाएं

नयन भर समेट लिया आलोकित सब कामनाएं

नव वर्ष उत्सव मना चैट द्वार पर भाव विशेषा

थी कोमल शिकायत नव वर्ष संदेसा न भेजा।


धीरेन्द्र सिंह

10.01.2025

22.17



गुरुवार, 9 जनवरी 2025

विश्व हिंदी

 विश्व हिंदी दिवस

दस जनवरी

बोल रहा है 

बीती विभावरी,


अब न वह ज्ञान

न शब्दों के प्रयोग

नव अभिव्यक्ति नहीं

विश्व हिंदी कैसा सुयोग,


घोषित या अघोषित

यह दिवस क्या पोषित

क्या सरकारी संरक्षण

या कोई भाव नियोजित,


न मौलिक लेखन

न मौलिक फिल्माकंन

ताक-झांक, नकल-वकल

क्या है अपने आंगन ?


हिंदी की विभिन्न विधाएं

कभी प्रज्वलित तो फडफ़ड़ाएं

भाषा संवर्धन पड़ा सुप्त

हिंदी की मुनादी फिराएं।


धीरेन्द्र सिंह

09.01.2025

15.44



मंगलवार, 7 जनवरी 2025

ढलते शब्द

 न कोई बरगलाहट है न कोई सुप्त चाहत है

वही ढल जाता शब्दों में जो दिल की आहट है


बहुत बेतरतीब चलती है अक्सर जिंदगानी भी

बहुत करीब ढलती है अविस्मरणीय कहानी भी

मन नहीं हारता तन में अबोला अकुलाहट है

वही ढल जाता शब्दों में जो दिल की आहट है


कर्म के दग्ध कोयले पर होते संतुलित पदचाप

भाग्य के सुप्त हौसले पर ढोते अपेक्षित थाप

कभी कुछ होगा अप्रत्याशित यह गर्माहट है

वही ढल जाता शब्दों में जो दिल की आहट है


बहुत संकोची होता है जो अपने में ही रहता

एक सावन अपना होता है जो अविरल बरसता

अंकुरण प्रक्रिया में कामनाओं की गड़गड़ाहट है

वही ढल जाता शब्दों में जो दिल की आहट है।


धीरेन्द्र सिंह

07.01.2025

11.01



शनिवार, 4 जनवरी 2025

पीढियां

 कुछ उम्र के सहारे चढ़ते हैं सीढियां

इस युग में होने लगी ऐसी पीढियां


बच्चों को कहें पढ़ने-लिखने की उम्र

युवाओं से करते भविष्य का जिक्र

जो अधेड़ हैं उनकी है कई रीतियाँ

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


अधेड़ और वरिष्ठ संचित अनुभवी

समय अपना देख बोलें अभी है कमी

प्रणय दबाकर गंभीरता की प्रीतियाँ

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


खुल कर प्रणय उल्लेख बिदक जाएंगे

भक्ति, दर्शन, राजनीति दुदबुदाएँगे

एक थकी बुजुर्ग पीढ़ी की है गलतियां

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


धीरेन्द्र सिंह

04.01.2025

14.12




गुरुवार, 2 जनवरी 2025

अपने

 शायद कोई सपने ना होते

अगर कोई अपने ना होते


चाह अंकुरण अथाह अंतहीन

अपने ना हों तो रहे शब्दहीन

भाव डुबुक लगाते तब गोते

अगर कोई अपने ना होते


कौन अपना कुछ जग जाने

कौन अपना झुक मन समाने

दिल खामोशी से देता न न्यौते

अगर कोई अपने ना होते


अपनों की दुनिया रहस्यमय

सपनों की बगिया भावमय

हृदय निस संभावना क्यों बोते

अगर कोई अपने ना होते।


धीरेन्द्र सिंह

02.01.2025

19.05

बुधवार, 1 जनवरी 2025

लुढ़कती जिंदगी

 ढलान पर

गेंद की तरह लुढ़कता

भी तो व्यक्तित्व है,

असहाय, असक्त सा

जिसकी शून्य पड़ी हैं

शक्तियां

बांधे घर की उक्तियाँ

कराती झगड़ा

अपशब्द तगड़ा

लांछन, दोषारोपण

बोलता मस्तिष्क लड़खड़ा,


कहां लिखी जाती हैं

चहारदीवारी की लड़ाईयां,

ढंक दिया जाता है सब

कजरौटा सा

कालिख भरा,

खड़ी दिखती दीवारें

अंदर टूटन भरभरा,


नहीं लिखी जाती

कविता में यह बातें

रसहीन जो होती हैं,

दिखलाता जिसे चैनल

मूक तनाव, झगड़े, घृणा

दर्पलीन जो होती है,


खोखली हंसी और

कृत्रिम मुस्कान

क्षद्म औपचारिकताएं

जीवन महान।


धीरेन्द्र सिंह

30.12.2024

17.520