सोमवार, 24 जनवरी 2011

तृप्ति का बस एक गोता

भावनाएं भीरूता का अक्सर करें प्रदर्शन
कल्पनाएं विहंगमयी नभ को करे कमतर
युग्म यह निर्मित करे अभिसार का त्यौहार
कौन छूटा इससे नभतर हो या जलचर

हर बदन का अपना गगन है रंगमय
हर अमन रंगीनियों का ही रहता सहचर
तूलिकाएं कैनवास पर तलाशे रंग नया
एक नया रंग आप कब पकड़ लूं बढ़कर

तुष्टियां, संतुष्टियां करें भ्रमित दुनिया यहां
कौन कितना पूर्ण किसका हमसफर रहबर
सांत्वना, सामंजस्य का यह खूबसूरत तालमेल
एक छलावा आत्ममयी कौन पाया छूट पलभर

अनवरत एक तलाश आत्मविश्वास ना हताश
नई पहल की कामना ले कामनाओं का तरूवर
एक अभिनव सी खनक हो राग की अनुराग की
तृप्ति का बस एक गोता जीवन हो जाए सरोवर.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

आस की ज्योति

नयन नटखट पलक पटापट मन है हतप्रभ
स्मित सिमट होंठों पर नव राग सजाए
साज-सुर संगत करें नित रंगत समेटे
इन्द्रधनुषीय भाल पर रहे बाण चलाए

सागरीय लहरों से भाव टूट रहे तटबंध पर
मृग मरीचिका बने रिश्ता हो अनुबंध पर
पूर्वाग्रसित भाव से कैसे कोई गंगा नहाए
नयनों की वाचालता पर मन रह-रह धाए

भावों का मोहक संयोजन ले दबंगतापूर्ण अंजन
पलकों की पुलकित हलचल ले भावमयी क्रंदन
बावरे मन का बवंडर नयनों में ऐसे इठलाए
जैसे तूफानी समंदर में नाव बे मांझी हो जाए

मन निरखता तन थिरकता चित्रमयी दुनिया सजाए
नयन नाजुक नाज़नीन ना जाने क्या बोल जाए
शब्द खिलकर लबों पर काश यह बोल पाए
एक पट की प्रतीक्षा है आस की ज्योति जलाए.


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शनिवार, 22 जनवरी 2011

आहट

आहटों का क्या भरोसा बोल दें कब
हाशिए से हसरतें कब छिटक जाएँ
एक अंजुरी में सागर की लालसा चपल
लहरों पर आकाँक्षाओं के दीपक सजाएँ

रंगमयी कामनाओं की रंगोली धवल
देह देहरी बंदनवार की स्वागती छटाएं
एक कंपित टहनी पर ठहरी बूँद
निरख रही पुष्प की अभिनव अदाएं

भाव के अलाव में ठिठुरन कहाँ
अगन मन मगन हो धधकती जाये
जलने-जलाने का यह अनवरत क्रम
विरह की मिलती है क्यों रह-रह सदाएं

क्यारियों में बंटी हैं वाटिकाएं
प्यार की रचती शाखाएं–प्रशाखाएं
हो विभाजित कब मिली परिपूर्णता
आहटों को पकड़ चलो खिल जाएँ   
  


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है 
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

रविवार, 16 जनवरी 2011

रचयिता

सांखल बजती रही भ्रम हवा का हुआ  
कल्पनाओं के सृजन की है यही कहानी
डूब अपने में किल्लोल की कमनीयता लिए
रसमयी फुहार चलती और कहीं जिंदगानी

हर नए झोंके में नवगीत लिए थाप है
एक नए बंदिश ने छेड़ी अपनी मनमानी
एक नए आकाश में कंदील नया जला
भावनाएं खिल उठीं कल्पनाएँ ले नादानी

निखर उठे नाज़-ओ-अदा ताप बिसर
खुसुर-फुसुर बनने लगी नयी कहानी
रचयिता की चल पड़ी अंगुलियाँ लिखने नया
कल्पनाएं निखर गयीं और राह अनजानी

प्राप्ति की संभावनाएं साज़ दिल की बनी 
व्याप्ति की आकांक्षाएं लगे दिलबर जानी
बांटने का सुख कोई इन दीवानों से सीखे
यथार्थ की खोह में ढूँढते आँखों का पानी.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता 
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शनिवार, 15 जनवरी 2011

आकर्षण का सम्प्रेषण


कुछ करीब आकर जो कदम रुक गए
धडकनें नगमे लिए यूँ गुनगुनाने लगी
सूखे पत्तों में गूँज उठी हरियाली ठुमक
पलकों की पर्देदारी लिए आँख बतियाने लगी

भाव कुछ कहना चाहें और शब्द भागे
अभिव्यक्तियाँ बदलियों सी आने-जाने लगी
एक कोंपल पर ठहरी बूँद सी चाहत लिए
टहनियों संग झूमती जिंदगी इठलाने लगी

पल के बल पर चपल चंचली काया कली
पुष्पगंधित अभिलाषाओं को सजाने लगी
एक निमंत्रण पोर पर निशा के भोर तक
रश्मियों का रथ सजा राह अपनाने लगी

आकर्षण का सम्प्रेषण मुखर तो होता नहीं
परिधि की परिभाषाएं भी कसमसाने लगी
और बढ़कर लौट आते कदम किंकर्तव्यविमूढ़
चाहतें अंधड़ सी उमड़ फिर आजमाने लगी.



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

बुधवार, 5 जनवरी 2011

दिए की लौ में

दिए की लौ में नयन यह निरखते रहा
एक चेहरे से लिपट रात सारी जलते रहा

सियाह परिवेश को रोशन हो जाने की तरस
दिए के आसरे हर रात दिल लड़ते रहा

हैं बहुत लोग मगर पास मेरे कोई नहीं
भीड़ रिश्तों की लिए मैं से झगड़ते रहा

मिले एक अपना उजाला कि राह मिले
गैर राहों की अंधेरों से बस उलझते रहा

है उलझी राह और मंज़िल भी बहुत ऊंची
मिलेगी रोशनी यह सोच मैं चलते रहा

रात बिखरी है बेतरतीब ना जाने क्यों
बुझे ना दीप यह सोच मैं जगते रहा.

धीरेन्द्र सिंह


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

इस तरह शाम ने

इस तरह शाम ने जुल्फों में छुपाया तुमको
चांद भी रात पूरी भागता रहा ना पाया
बादलों ने भी की तरफदारी शाम की खूब
चांदनी छुपती रही मिल ना पाया साया

किसी झुरमुट से झींगुर ने संदेशा दिया
तट सरोवर कल शाम था इठलाया
जुगनुओं ने घेर रखा था सिपाही की तरह
मखमली एहसास लिए था कोई आया

हवा ने बिखेरा तुम्हारी जुल्फों की खुशबू

पत्तों ने उड़ कहा कल कोई था गुनगुनाया
बीते कल की गूंज में आज नज़र ना आया
कोशिशें नाकाम रही शाम ने खूब छकाया

तुम्हारे वादों पर ऐतबार जो दिल ने किया
फिर किसी वादे पर यकीन ही ना आया
कदम फिर चले पड़े उम्मीद से लिपटे
फिर भी ना मिल सकी हसीन सी माया


धीरेन्द्र सिंह



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
 शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.