कंकड़ लगातार
जल वलय
डुबक ध्वनि
खुद से युद्ध
मन चितेरा।
धीरेन्द्र सिंह
गीत लिखने को गगन रहे आतुर
सज-धज कर धरा भी इठलाए
प्रकृति प्रणय है अति प्रांजल
प्रीत गीत सब रीत अकुलाए
उग सी रही मन बस बन दूर्वा
नैवेद्य वहीं बन मूक चढ़ाएं
कोमल दूर्वा झूमे पुष्परहित
मन समझे उन्हें छू गई ऋचाएं
ग्रहण लग गया धरा को अब तो
शंकर तांडव, गगन छुप जाए
धरती लिपटी शंकर के डमरू
गगन अगन, जल मुस्काए
यही प्रकृति है प्रणय यही है
शंकर क्यों तांडव मचाएं
गीत, गगन-धरा नित की बातें
धरती चुपके से पढ़ जाए।
धीरेन्द्र सिंह
समय की वेदना का यह अंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
नियति की गोद में निर्णय ही सहारा
उड़े मन को मिले फिर वही किनारा
हृदय के दर्द का अब यही रंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए
जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए
उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन
नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन
यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।
धीरेन्द्र सिंह
ओ मन झूम जाओ
आकर चूम जाओ
बहुत नादान है यह मन
दहन धड़कन है सघन
सावनी व्योम लाओ
आकर चूम जाओ
परिधि जीवन का है बंधन
देहरी पर सजा चंदन
मर्यादा निभाओ
आकर चूम जाओ
शमित होती हर दहन
मन को चूमता जब मन
वादे ना भुलाओ
आकर चूम जाओ।
धीरेन्द्र सिंह
मेरी सांस चले एहसास रुके
कोई बात है या फिर कहासुनी
तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो
सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी
निस्पंद है मन लूटा मेरा धन
दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी
एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे
खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी
पग चलते हैं तुम ओर सदा
राहों ने खामोशी क्यों है बुनी
पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से
बगिया की मालन लगे अनसुनी।
धीरेन्द्र सिंह
किसी को छोड़ देना भी
सहज आसान इतना कि
जैसे दीप जल में प्रवाहित
कामनाओं के,
लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं
मन दीपक
छुवन की लौ है ढहती
जल गर्जनाओं के,
हम ही तुम थे
कि बाती दीप सजाए
तपिश बाती में धुआं भ्रमित
अर्चनाओं के।
धीरेन्द्र सिंह
शाम हसरतों की कर रही शुमारी
और गहरी हो रही फिर वही खुमारी
एक अकेले लिए चाहतों के मेले
कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी
प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर
ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी
सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे
काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।
धीरेन्द्र सिंह