शनिवार, 4 जनवरी 2025

पीढियां

 कुछ उम्र के सहारे चढ़ते हैं सीढियां

इस युग में होने लगी ऐसी पीढियां


बच्चों को कहें पढ़ने-लिखने की उम्र

युवाओं से करते भविष्य का जिक्र

जो अधेड़ हैं उनकी है कई रीतियाँ

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


अधेड़ और वरिष्ठ संचित अनुभवी

समय अपना देख बोलें अभी है कमी

प्रणय दबाकर गंभीरता की प्रीतियाँ

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


खुल कर प्रणय उल्लेख बिदक जाएंगे

भक्ति, दर्शन, राजनीति दुदबुदाएँगे

एक थकी बुजुर्ग पीढ़ी की है गलतियां

इस युग से होने लगी ऐसी पीढियां


धीरेन्द्र सिंह

04.01.2025

14.12




गुरुवार, 2 जनवरी 2025

अपने

 शायद कोई सपने ना होते

अगर कोई अपने ना होते


चाह अंकुरण अथाह अंतहीन

अपने ना हों तो रहे शब्दहीन

भाव डुबुक लगाते तब गोते

अगर कोई अपने ना होते


कौन अपना कुछ जग जाने

कौन अपना झुक मन समाने

दिल खामोशी से देता न न्यौते

अगर कोई अपने ना होते


अपनों की दुनिया रहस्यमय

सपनों की बगिया भावमय

हृदय निस संभावना क्यों बोते

अगर कोई अपने ना होते।


धीरेन्द्र सिंह

02.01.2025

19.05

बुधवार, 1 जनवरी 2025

लुढ़कती जिंदगी

 ढलान पर

गेंद की तरह लुढ़कता

भी तो व्यक्तित्व है,

असहाय, असक्त सा

जिसकी शून्य पड़ी हैं

शक्तियां

बांधे घर की उक्तियाँ

कराती झगड़ा

अपशब्द तगड़ा

लांछन, दोषारोपण

बोलता मस्तिष्क लड़खड़ा,


कहां लिखी जाती हैं

चहारदीवारी की लड़ाईयां,

ढंक दिया जाता है सब

कजरौटा सा

कालिख भरा,

खड़ी दिखती दीवारें

अंदर टूटन भरभरा,


नहीं लिखी जाती

कविता में यह बातें

रसहीन जो होती हैं,

दिखलाता जिसे चैनल

मूक तनाव, झगड़े, घृणा

दर्पलीन जो होती है,


खोखली हंसी और

कृत्रिम मुस्कान

क्षद्म औपचारिकताएं

जीवन महान।


धीरेन्द्र सिंह

30.12.2024

17.520

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

वह

 खयाल अपने बदलकर वह जवाब हो गए

करने लगे चर्चा कि हम बेनकाब हो गए


जब तक चले थे साथ, भर विश्वास हाँथ

बुनते गए खुद को, देता रहा हर काँत

पहचान मिली, सम्मान यूं आबाद हो गए

करने लगे चर्चा कि हम बेनकाब हो गए


हृदय से जुड़कर रहे निरखते भाव-भंगिमाएं

प्रणय तन तक है छलकते वह समझाएं

दिल से दिल से जो जुड़े, जज्बात हो गए

करने लगे चर्चा कि हम बेनकाब हो गए


हसरतों में उनके रहीं हैं बेसबब वीरानियाँ

रचते गए बेबाक जिंदगी की सब कहानियां

अब दौर यही भूत के सब असबाब हो गए

करने लगे चर्चा कि हम बेनकाब हो गए।


धीरेन्द्र सिंह

30.12.2024

13.05




रविवार, 29 दिसंबर 2024

भींगी आतिश

 सर्दियों की बारिश

चाहतों की वारिस

दावा ले बरस पड़ी

शुरू हुई सिफारिश


बूंदों की हसरतें हैं

बादलों की नवाजिश

हवाओं में है नर्तन

उनिदों की गुजारिश


शीतलता समाई भरमाई

चाह ऊष्मता खालिश

झकोरे बूंद पहनाए

सिहरन सिहरन मालिश


बूंद बने ओला

जल उठे माचिस

मौसम की अदाएं

जिंदगी भींगी आतिश।


धीरेन्द्र सिंह

30.12.2024

00.32




शनिवार, 28 दिसंबर 2024

ठंढी

 

शीतल चले बयार दिल जले हजार
किसी को पड़ी कहां
कंबल बंटते दग्ध अलाव मन पुकार
अजी वह अड़ी कहां

कविताएं हर भाव जगाएं खूब नचाए
साजिंदों की अढ़ी कहां
उष्मित कोमल भाव लिख रहे रचनाकार
इनको किसकी पड़ी कहां

हर दिन उगता मद्धम सूर्य रश्मि लिए
पंखुड़ी शबनम जुड़ी कहाँ
ठंढी अपनी मंडी पूरी निस साज सँवारे 
ओला, बर्फ,ओस लड़ी जहां

शीतल चले बयार आतिथ्य मिले विभिन्न
सांस भाप बन उड़ी कहां
दिन ढलते चूल्हा जल जाए भोज लिए
जीमनेवाले बेफिक्र, घड़ी कहां।

धीरेन्द्र सिंह
28.12.2024
17.52






गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

वैवाहिक जीवन

 वैवाहिक जीवन के अक्सर झगड़े

हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े


सुविधापूर्ण जगत में सारी सुविधाएं

धन एकत्र करने की होड़ और पाएं

प्रतियोगिता, दबाव और कई लफड़े

हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े


विवाह की भी बदल रही परिभाषा

परिणय प्रयोग की बनी कर्मशाला

पास-पड़ोस, रिश्तों में चाहे हों अगड़े

हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े


शून्य पर पहुंची लगे सहनशीलता 

शुध्द व्यवहार गणित क्या मिलता

लड़खड़ा रहे अतृप्त संस्कार है पकड़े

हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े।


धीरेन्द्र सिंह

26.12.2024

15.39