शनिवार, 28 दिसंबर 2024
ठंढी
गुरुवार, 26 दिसंबर 2024
वैवाहिक जीवन
वैवाहिक जीवन के अक्सर झगड़े
हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े
सुविधापूर्ण जगत में सारी सुविधाएं
धन एकत्र करने की होड़ और पाएं
प्रतियोगिता, दबाव और कई लफड़े
हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े
विवाह की भी बदल रही परिभाषा
परिणय प्रयोग की बनी कर्मशाला
पास-पड़ोस, रिश्तों में चाहे हों अगड़े
हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े
शून्य पर पहुंची लगे सहनशीलता
शुध्द व्यवहार गणित क्या मिलता
लड़खड़ा रहे अतृप्त संस्कार है पकड़े
हाँथ उठाने से हो जाते क्या तगड़े।
धीरेन्द्र सिंह
26.12.2024
15.39
मंगलवार, 24 दिसंबर 2024
फुलझड़ी
हम उसी भावनाओं की फुलझड़ी हैं
आतिशबाजियों को क्यों तड़ातड़ी है
रंगबिरंगी रोशनी से है जिंदगी नहाई
शुभसंगी कौतुकी में है बंदगी अंगड़ाई
समस्याएं सघन मार्ग चांदनी खड़ी है
आतिशबाजियों को क्यों तड़ातड़ी है
फुलझड़ी संपर्क है जलने तक रुबाई
सुरक्षित शुभता दिव्यता भर मुस्काई
अन्य ध्वनि करें असुरक्षा भी बड़ी है
आतिशबाजियों को क्यों तड़ातड़ी है
अंगुलियों से पकड़ें तो चाह चमचमाई
फुलझड़ी सहयोगी संग-साथ गुनगुनाई
रोशन फूल सितारों की जिंदगी लड़ी है
आतिशबाजियों को क्यों तड़ातड़ी है।
धीरेन्द्र सिंह
25.12.2024
12.14
प्रेम कली
आप यथार्थ मैं यथार्थ
अस्पष्ट हैं सब भावार्थ
अभिव्यक्तियां विभिन्न
दावा सभी करें समानार्थ
बूंद चुनौती सागर देती
गागर थिरकन चित्रार्थ
लहरें कब करदें तांडव
विप्लव कब होता परमार्थ
सबके हिय बहता सागर
मन गगरी स्पंदन स्वार्थ
सबकी खोज यथार्थ है
सबका प्रयास है ज्ञानार्थ
अपने यथार्थ को जानें
माने समझें क्या हितार्थ
प्रेम कली का प्रस्फुटन
सागर गागर बस संकेतार्थ।
धीरेन्द्र सिंह
24.12.2024
16.11
सोमवार, 23 दिसंबर 2024
साइबर क्राइम
बातों ही बातों में ले लेते हैं रुपए
साइबर क्राइम के शिक्षित बहुरुपिए
शालीनता, शिष्टता के बन पुजारी
कितनों के खाते में की है सेंधमारी
अर्थजाल बना मोहक कहें चमकिए
साइबर क्राइम के शिक्षित बहुरुपिए
ज्ञानी, समझदार, सतर्क भी फंसते
खुद से लुटा दिया देर में हैं समझते
भावनाओं से खेलते चाहें और भभकिए
साइबर क्राइम के शिक्षित बहुरुपिए
चालबाजों का समूह रचते रहता व्यूह
सबकी निर्धारित भूमिका चालें गुह्य
लोभ की लपक दबंग उमंग ना गहिए
साइबर क्राइम के शिक्षित बहुरुपिए।
धीरेन्द्र सिंह
23.12.2024
17.39
शनिवार, 21 दिसंबर 2024
प्रौसाहित्य
प्रौसाहित्य और प्रौसाहित्यकार
जो भी देखा लिख दिया यह हौसला है
रचनाकार वही जिसका ऐसा फैसला है
रुचिकर अरुचिकर साहित्य नहीं होता
उगता अवश्य है मन से सर्जन बोता
शब्द मदारी कलम दुधारी जलजला है
रचनाकार वही जिसका ऐसा फैसला है
साधना को मांजना ही प्रौसाहित्य है
प्रौद्योगिकी नहीं तो लेखन आतिथ्य है
प्रौसाहित्य पसर रहा बसर ख़िलाखिला है
रचनाकार वही जिसका ऐसा फैसला है
प्रौसाहित्य में लेखन नित धुआंधार है
प्रतिक्षण मिलता सूचनाओं का अंबार है
प्रौसहित्यकार का कारवां हिलामिला है
रचनाकार वही जिसका ऐसा फैसला है।
धीरेन्द्र सिंह
22.12.2024
10.59
दरकार
सर्दियों में गर्म साँसों की ही फुहार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
कब छला, कौन छला, कब रुका तो चला
अंकुरण की खबर नहीं संग हवा बह चला
नीतियों की रीतियों में बसा झंकार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
भावनाओं के भंवर में तरसते ही रह गए
कामनाओं में संवर यूं बरसते ही बह गए
भींग जाने पर बोले जेठ की बयार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है
मन फुदकते बोले यह नहीं तो वह डाल
स्वर अलापता ही रहा मिला न सही ताल
सत्य उभरा मन ही अपना सरकार है
अश्रु बर्फीले टपकते किसको दरकार है।
धीरेन्द्र सिंह
21.12.2024
15.35