बुधवार, 12 अप्रैल 2023
दिमाग से लिखी कविता
पाजी नयन
गुलाल फेंक पलकों में छुप गयी अंखिया
कहां से भींग आयी बोल पड़ी सब सखियां
एक सिहरन एक चिंतन में लिपटी हुई थी
बात उड़ने लगी रंग ली तो पक्की अंगिया
गुदगुदी कर सताने लगे वह पाजी नयन
गगन को रंगने लगी तन्मयी मन बतिया
चेहरे पर नई चमक सदाबहार यह मुस्कान
एक पल ने रंग दी कब प्यारी सी दुनिया
लोग कहने लगे तितली सी क्यों उड़ने लगी
इश्क़ महकने को कहां उम्र थीं मजबूरियां।
धीरेन्द्र सिंह
05.04.2023
06.19
तृषा की चीख
तृषा की चीख को जल सुनता नहीं
जलाशय बन रहे कोई गिनता नहीं
बयानबाजी में चर्चित रही प्यास खूब
नमी आंखों की रोई कोई कहता नहीं
सावन ने मचाया शोर दे आश्वासन कई
पावन बूंद ना टपकी कहें समझा नहीं
नदियां भी गयी सूख खेती है पड़ी सूनी
पूजा अर्चनाएं बीती गगन बरसा नहीं
कई झंडों में हुई विभाजित यह बस्ती
तृष्णा तृप्ति व्याकुल कोई जंचता नहीं।
धीरेन्द्र सिंह
04.04.2023
18.14
दंश इश्किया
बहुत गुमान चांदनी पे अगर प्यार है
खुशनसीब हैं जिनके संग यार है
चांद यूं नहीं उतरता सबकी नजरों में
रात अक्सर करती खबरदार है
अमूमन बज़्म में रहते हैं खामोश
दंश वही जानें जो तलबगार हैं
ओढ़ मासूमियत की चादर अलहदा
दिखाते ऐसे कि वह बेकरार हैं
किसी समूह में या फेसबुक पर मिलें
स्वार्थ की एक नई तलवार हैं
कितने गिरे पा दंश इश्किया इनका
नए की तलाश में यह रचनाकार हैं।
धीरेन्द्र सिंह
03.04.2023
20.10
चाहत
नरीमन पॉइंट का पत्थर हूँ
तुम हो सागर की लहरें
मिलकर दोनों तो कुछ टूटें
आखिर दृढ़ता वाले जो ठहरे
कितने निश्चिन्त बैठे हैं लोग
ले भाव निभाव इकहरे
लहरें कूद आती सड़कों तक
पत्थर ताकते गहरे-गहरे
लहरें प्रीत संदेसा लाती लगातार
अस्वीकार, पत्थर मन है भरे
ना रुकतीं फिर भी लहरें मतवाली
जीवन कब, जज्बातों को धरे
समझ गयी न आनेवाली ओ लहरें
पत्थर सामने क्यों दिखावा करे
जब तक रहा समाहित, था तेरा
अब किनारे पत्थर, है आग भरे।
धीरेन्द्र सिंह
02.04.2023
21.29
शनिवार, 1 अप्रैल 2023
हवा का तमाशा
लौ रही फड़फड़ा दिये का तकाजा है
हर कोई उड़ रहा हवा का तमाशा है
गलियों में रहा गूंज अबोला सल्तनत
बूटों का कदमताल लगे गाजा-बाजा है
मियाद वक़्त की भी चुकती रहती है
फरियाद छूट की मरती हुई आशा है
उभर पड़े हैं टीलों पर नाखून तेज धार
झपट कर सींच ले खुद को हताशा है
गुजर रही है नदी कलकल करती हुई
कश्तियाँ डूब रहीं लहरों ने हुंकारा है
कई जज्बात कई संवाद चल रहे हैं
चलने को कदम किस ने संवारा है।
धीरेन्द्र सिंह
02.04.2023
07.30
ऑनलाइन प्यार
ऑनलाइन प्यार
चाहतें बूंद सी माथे पे चमक जाती हैं
जब भी वह ऑनलाइन नजर आती हैं
न जाने कौन होगा चैट हो रही होगी
एक चाह कई मंजिल डगर जाती है
अपने से ज्यादा उनकी हरक़तों की जांच
बेचैनियां लिए अंदेशे उभर जाती हैं
हमसे करती हैं चैट झूमता है मौसम
भींगो कर ऐसे अक्सर गुजर जाती है
रह-रह कर चिहुंक मोबाइल उठा लेना
कितनी बेदर्दी से एहसास कुतर जाती हैं।
धीरेन्द्र सिंह
01.04.2023
20.27