बुधवार, 12 अप्रैल 2023

दिमाग से लिखी कविता

चाहत आपके द्वार खड़ा, बन अनुरागी
राहत की क्यों चाह, सभी तो प्रतिभागी
कदम प्रति कदम चयन, मिले चुनौती
कौन सहज धुन संग, प्रीत समभागी

अनुनय-विनय विसर्जित करता प्रायः दम्भ
वर्चस्वता चाह बनाती व्यक्ति हठगामी
प्रीत रीति कोई नीति नहीं जग
धड़कन तड़पन में अक्सर द्रुतगामी

मन की सांखल चढ़ा चतुर बनें सब
और दिमाग के विवाद के दमनामी
कितनों को लपेट, प्रीति चादर संग
बन दबंग कर त्यजन, बने धुनगामी

छल की छननी में छनता जाता इंसान
भाव गगरिया छलकत हो समनामी
झूठ, असत्य, छुपाना युग का है तराना
जीवन एक रहस्य, तथ्य पाना गुमनामी।

धीरेन्द्र सिंह
06.04.2023
06.12
पुणे

पाजी नयन

 गुलाल फेंक पलकों में छुप गयी अंखिया

कहां से भींग आयी बोल पड़ी सब सखियां


एक सिहरन एक चिंतन में लिपटी हुई थी

बात उड़ने लगी रंग ली तो पक्की अंगिया


गुदगुदी कर सताने लगे वह पाजी नयन

गगन को रंगने लगी तन्मयी मन बतिया


चेहरे पर नई चमक सदाबहार यह मुस्कान

एक पल ने रंग दी कब प्यारी सी दुनिया


लोग कहने लगे तितली सी क्यों उड़ने लगी

इश्क़ महकने को कहां उम्र थीं मजबूरियां।


धीरेन्द्र सिंह

05.04.2023

06.19

तृषा की चीख

 तृषा की चीख को जल सुनता नहीं

जलाशय बन रहे कोई गिनता नहीं


बयानबाजी में चर्चित रही प्यास खूब

नमी आंखों की रोई कोई कहता नहीं


सावन ने मचाया शोर दे आश्वासन कई

पावन बूंद ना टपकी कहें समझा नहीं


नदियां भी गयी सूख खेती है पड़ी सूनी

पूजा अर्चनाएं बीती गगन बरसा नहीं


कई झंडों में हुई विभाजित यह बस्ती

तृष्णा तृप्ति व्याकुल कोई जंचता नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2023

18.14

दंश इश्किया

 बहुत गुमान चांदनी पे अगर प्यार है

खुशनसीब हैं जिनके संग यार है


चांद यूं नहीं उतरता सबकी नजरों में

रात अक्सर करती खबरदार है


अमूमन बज़्म में रहते हैं खामोश

दंश वही जानें जो तलबगार हैं


ओढ़ मासूमियत की चादर अलहदा

दिखाते ऐसे कि वह बेकरार हैं


किसी समूह में या फेसबुक पर मिलें

स्वार्थ की एक नई तलवार हैं


कितने गिरे पा दंश इश्किया इनका

नए की तलाश में यह रचनाकार हैं।


धीरेन्द्र सिंह

03.04.2023

20.10

चाहत

 नरीमन पॉइंट का पत्थर हूँ

तुम हो सागर की लहरें

मिलकर दोनों तो कुछ टूटें

आखिर दृढ़ता वाले जो ठहरे


कितने निश्चिन्त बैठे हैं लोग

ले भाव निभाव इकहरे

लहरें कूद आती सड़कों तक

पत्थर ताकते गहरे-गहरे


लहरें प्रीत संदेसा लाती लगातार

अस्वीकार, पत्थर मन है भरे

ना रुकतीं फिर भी लहरें मतवाली

जीवन कब, जज्बातों को धरे


समझ गयी न आनेवाली ओ लहरें

पत्थर सामने क्यों दिखावा करे

जब तक रहा समाहित, था तेरा

अब किनारे पत्थर, है आग भरे।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2023

21.29

शनिवार, 1 अप्रैल 2023

हवा का तमाशा

 लौ रही फड़फड़ा दिये का तकाजा है

हर कोई उड़ रहा हवा का तमाशा है


गलियों में रहा गूंज अबोला सल्तनत

बूटों का कदमताल लगे गाजा-बाजा है


मियाद वक़्त की भी चुकती रहती है

फरियाद छूट की मरती हुई आशा है


उभर पड़े हैं टीलों पर नाखून तेज धार

झपट कर सींच ले खुद को हताशा है


गुजर रही है नदी कलकल करती हुई

कश्तियाँ डूब रहीं लहरों ने हुंकारा है


कई जज्बात कई संवाद चल रहे हैं

चलने को कदम किस ने संवारा है।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2023

07.30

ऑनलाइन प्यार

 ऑनलाइन प्यार


चाहतें बूंद सी माथे पे चमक जाती हैं

जब भी वह ऑनलाइन नजर आती हैं


न जाने कौन होगा चैट हो रही होगी

एक चाह कई मंजिल डगर जाती है


अपने से ज्यादा उनकी हरक़तों की जांच

बेचैनियां लिए अंदेशे उभर जाती हैं


हमसे करती हैं चैट झूमता है मौसम

भींगो कर ऐसे अक्सर गुजर जाती है


रह-रह कर चिहुंक मोबाइल उठा लेना

कितनी बेदर्दी से एहसास कुतर जाती हैं।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2023

20.27