शनिवार, 13 दिसंबर 2025

प्रत्यंचा

 खिंची प्रत्यंचा

प्रति व्यक्ति का यथार्थ

आज भी सत्य है

संघर्ष ही पुरुषार्थ,

मुस्कराहटें कमअक़्ली हैं

कौन जाने यथार्थ या नकली हैं

वर्तमान को व्यक्ति खेता है

मूलतः व्यक्ति अभिनेता है;


घर के संबंधों में

जुड़ाव निर्विवाद है

पर भावना कितनी कहां

इसपर मूक संवाद है,

चेतना की तलहटी पर

वेदना की फसल  झूमे

मंडी में धूम मची

यह फसल बेमिसाल है;


विज्ञापन युग कौशल में

उत्पाद ही चमत्कार है

व्यक्ति हो रहा विज्ञापित

बाजार ही आधार है,

समय प्रदर्शन का है

दर्शन तो एक प्रकार है

तरंगित सतह लगे प्रबल

तलहटी को क्या दरकार है;


घर बदल रहा रूप

गृह ऋण का संवाद है

ईएमवाई पर जीवन जीना

अधिकांश का वाद है;

चार्वाक प्रबल बोलें

"ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत"

वर्तमान की क्रिया यही

सत्य यह निर्विवाद है।


धीरेन्द्र सिंह

14.12.2025

00.53

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

सिरफिरा

 व्यक्ति निरंतर

ऊर्जाओं से घिरा है

कभी लगता समझदार

कभी लगे सिरफिरा है,

जीवन इन्हीं ऊर्जा लहरों में

खेल रहा है

व्यक्ति ऊर्जाओं से घिरा

बेल रहा है,


प्रतिकूल परिस्थितियां

या

अनियंत्रित भावनाएं

आलोड़ित कामनाएं

किसे कैसे अपनाएं,

इन्हीं झंझावातों को

झेल रहा है

व्यक्ति आसक्तियों से घिरा

गुलेल रहा है,


भंवर में संवरने का

संघर्षमय प्रयास

अंजुली भर नदी

रेगिस्तान सी प्यास,

आस में आकाश नव

रेल रहा है

वादियां गूंज उठी

कहकहा है,


खुद को निचोड़कर

निर्मलता का प्रयास

ताशमहल निर्मित कर

सबलता का कयास,

खुद से निकल खुद को

ठेल रहा है

कारवां से प्रगति का ऐसा

मेल रहा है।


धीरेन्द्र सिंह

13.12.2025

10.59







बुधवार, 3 दिसंबर 2025

व्यक्ति

व्यक्ति जितना जीवन में संभल पाएंगे

स्वयं को और अभिव्यक्त कर पाएंगे

व्यक्ति निर्भर है किसी व्यक्ति पर ही

अकेला सोच कर व्यक्ति डर जाएंगे


हाँथ में हाँथ या कंधे पर थमा विश्वास

जुड़कर जीवनी जुगत कई कर जाएंगे

भीड़ में व्यक्ति अपनों को ही ढूंढता है

अपरिचित भीड़ भी तो व्यक्ति, कुम्हलायेंगे


निर्भरता स्वाभाविक है जीवन डगर में

मगर क्या आजन्म निर्भर रह पाएंगे

व्यक्ति आकर्षण है आत्मचेतनाओं का

वर्जनाओं में संभावनाएं तो सजाएंगे


मन है भागता कुछ अनजान की ओर

सामाजित बंधनों को कैसे तोड़ पाएंगे

तृप्त की तृष्णा में तैरती अतृप्तियां हैं

व्यक्ति भी व्यक्ति संग कितना संवर पाएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

04.12.2025

06.51

गोवा



सोमवार, 1 दिसंबर 2025

बतकही

नहीं लिखूंगा नई रचना मन कहे नहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अभिव्यक्तियाँ कभी भी रुकती नहीं

आसक्तियां परिवेश से हैं कटती नहीं

संभावनाएं उपजे हों घटनाएं चाहे कहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अनुभूतियों का भावनाओं में जगमगाना

भावनाओं में अभिव्यक्तियों का कसमसाना

शब्दों में भाव घोलकर सम्प्रेषण रचें कई

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


आदत है या ललक प्रतिदिन का लिखना

सृष्टि है स्पंदित तो कठिन है चुप रहना

कुछ उमड़-घुमड़ रहा पकड़ न पाएं अनकही

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही।


धीरेन्द्र सिंह

02.12.2025

06.13



शनिवार, 29 नवंबर 2025

काया

 एक काया अपनी सलवटों में भर स्वप्न

जीवन क्या है समझने का करती यत्न

झंझावातों में बजाती है नवऋतु झांझर

अपने सुख-दुख भेदती रहती है निमग्न


सृष्टि का महत्व अपने घनत्व तक तत्व

शेष सब निजत्व सबके अपने हैं प्रयत्न

कौन मुंशी किसकी आढ़त सत्य सांखल

देह अपनी अर्चना से दृष्टि गढ़ती सयत्न


अनुभूतियों की ताल पर देह का ही नृत्य

आत्मा अमूर्त अदृश्य मोक्ष भाव से संपन्न

अभिलाषाएं ले अपनी कुलांचें झूठे सांचे

कोई कहे तृप्ति लाभ तो कोई कहे विपन्न


काया ने भरमाया या काया से सब करपाया

मोह का तमगा लगा देह उपेक्षित आसन्न

आत्मा के पीछे दौड़ ईश्वर पर निरंतर तौर

काया, आत्मा भरमाती फिर भी सब प्रसन्न।


धीरेन्द्र सिंह

01.12.2025

07.53







शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

प्रणय और परिणय

 उम्र में बांटकर हुआ क्या कभी प्यार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


आत्मा से आत्मा का होता है जब अनुराग

तब कहीं तन्मयता से उभरती है प्रेम आग

प्यार एक संवेग है जिसपर कठिन अधिकार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


कौन अति सम्पन्न कौन आत्मिक है पल्लवित

प्रणय की एक चिंगारी तत्क्षण  करे समन्वित

प्रणय है सीमा परे हृदय पर हृदय अधिकार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार


प्रणय और परिणय में होता है व्यापक अंतर

प्रणय असीमित परिणय है सामाजिक मंतर

परिणय को प्रणाम प्रणय उन्मुक्तता का द्वार

बीच फर्क उम्र का क्यों जतलाती यार।


धीरेन्द्र सिंह

28.11.2025


21.36


बुधवार, 26 नवंबर 2025

एकल बच्चा

 बच्चे लड़ें सहज जीवन पढ़ें

अभिभावक ना आपस में नड़े


बच्चे खेलते हैं लड़ते-झगडते हैं

जीवन को समझते ऐसे बढ़ते हैं

यह स्वाभाविक विकास ना पचड़े

अभिभावक ना आपस में नडें


व्यस्त अभिभावक एक बच्चे तक

अभिभावक व्यस्त एकाकी बच्चे तक

भावनाएं मित्रों बीच लडखडाये, उड़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें


एक बच्चे का बढ़ता हुआ है चलन

ख़र्चे बच्चे का रोकते हैं आगे जनन

बाल सुलभ चंचलता बाल संग बढ़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें


दूसरों के घर दो बच्चे देख हो मुग्धित

सोचे वह होता दो नोक-झोंक समर्थित

एकल संतान अपनी भावनाओं से जड़े

अभिभावक ना आपस में लड़ें।


धीरेन्द्र सिंह

27.11.2025

05.47