शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

यकीन

किसी यकीन पर झिलमिलाती चाहत की बूंदे

एक दौर अपनी जिंदगी का सप्तरंगी सजाएं

किसी यथार्थ भूमि की परत खुरदरी यूँ बोले

एकल धमक की ललक को यूँ कैसे समझाएं


वह हिमखंड सा छोटा सिरा दुनिया को दिखलाए

वह ऐसी तो नहीं क्या पता कितने समझ पाए

पताका फहराने भर से विजय का क्यों निनाद

बात है कि सब संग जुड़ अपनों सा झिलमिलाएं


तुम एक द्वीप हो एक देश हो मनभावनी दुनिया

किनारे लोग आमादा क्या पता कौन पहुंच पाए

जो दूर है बदस्तूर है बस नूर है सुरूर अलहदा

यकीन क्यों न हो मोहब्बत उन्हें सोच खिलखिलाए।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2025

22.10



सामाजिक कुरीतियों पर कविता ना वार करे

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे


प्यार एक जीवन है नहीं कुछ समय का तार

जिनमें नहीं वीरता उनका सच्चा नहीं प्यार

प्यार-प्यार लेखन भरा समस्याएं इंतजार करें

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे


लेखन में धार हो रचनाकार 


वामपंथी लेखन की ओर कतई नहीं है ईशारा

लेखन यथार्थ हो तो मिले जीवन को सहारा

कुछ सोचे तथ्य नोचे समीक्षा भी कथ्यवार करे

ऐसे लेखन से भला संवेदनशील कैसे प्यार करे

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

दिल

 क्या संभव है दिल एक से जुड़ा रहे

जोंक सा चिपक जाए नहीं उड़ा रहे

इस असंभव को सभी प्रेमी स्वीकारते

हृदय जैसे नग है अंगूठी में जड़ा रहे


चित्त चंचल प्रवृत्ति है आकर्षण स्वभाव

कौन है जो रात्रिभर चाँद संग खड़ा रहे

प्यार भी तो एक सावनी फुहार सा है

पुलकन, सिहरन लिए बारिशों में पड़ा रहे


विवाह एक धर्म है कर्म सामाजिक निभाना

परिवार की संरचना में जीवन मूल्य मढ़ा करे

दायित्व परिणय है आजीवन निभाने के लिए

हृदय को कौन बांध पाया यह फड़फड़ा तरे।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2025

05.23



बुधवार, 19 नवंबर 2025

हिंदी भगवान

सुन रहा हूँ सत्य के अभिमान को

गुन रहा हूँ कथ्य के नव मचान को

आप केंद्र में एक संभावना बन सुनें

कुछ प्रवक्ता चैनल के भव विद्वान को


चैनलों के कुछ एंकर भूल रहे हिंदी

कुछ प्रवक्ता सक्रिय भाषा अपमान को

आप जनता हैं तो सुनिए यही प्रतिदिन

कौन कहे मीडिया के भाषा नादान को


हिंदी को करता दूषित है हिंदी चैनल

हिंदी शब्द बलि चढ़े अंग्रेजी मान को

कुछ एंकर कुछ प्रवक्ता लील रहे हिंदी

आप कहीं ढूंढिए अब हिंदी भगवान को।


धीरेन्द्र सिंह

19.11.2025

19.22

रविवार, 16 नवंबर 2025

गुठलियां

सर्दियों में सिहर गईं गुठलियां

माटी भी ऊष्मा अपनी खोने लगी

ऋतु परिवर्तन है या आकस्मिक

घाटी भी करिश्मा से रोने लगी


सर्दियों की बनी थीं कई योजनाएं

कामनाएं गुठली को संजोने लगी

वादियों की तेज हवा मैदानी हो गयी 

भर्तस्नायें जुगत सोच होने लगीं


सुगबुगाहट युक्ति की प्रथम आहट

सर्दियां थरथराहट आदतन देने लगी

गुठलियां जुगत की जमीन रचीं

उर्वरक अवसाद भाव बोने लगीं


मौसम परास्त कर न सका गुठलियां

पहेलियां गुठली नित रच खेने लगीं

कल्पना के चप्पू से दूर तलक यात्रा

गुठलियां जमीन को स्वयं पिरोने लगीं।


धीरेन्द्र सिंह

19.08

17.11.2025






नारी रुदन

पोषण है कि शोषण रहे हैं उलझाए

एयरपोर्ट पर नारी रुदन चिंता जगाए

मौन हैं दुखी है या निरुत्तर है मायका

नेतृत्व परिवार नेतृत्व क्यों सकपकाए


अंग अपना दान करती पिता को पुत्री

उसी अंगदान को भंगदान कह चिढाएं

मीडिया के सामने अविरल बही अश्रुधारा

मायका रहा शांत जो सुना वह बुदबुदाए


भैया की कलाई पर अटूट विश्वासी राखी

मस्तक रचि तिलक मुहँ मीठा बहन कराए

कर त्याग मायके का कदम उठाए नारी यदि

अटूट रिश्ता है दरका समाज कैसे संवर पाए।


धीरेन्द्र सिंह

16.11.2025

21.38



शनिवार, 15 नवंबर 2025

आराधना

 हृदय का हृदय से हो आराधना

पूर्ण हो प्रणय की प्रत्येक कामना

आप निजत्व के महत्व के अनुरागी

मैं प्रणय पुष्प का करना चाहूं सामना


तत्व में तथ्य का यदि हो जाये घनत्व

महत्व एक-दूजे का हो क्यों धावना

सामीप्य की अधीरता प्रतिपल उगे

समर्पण की गुह्यता को क्यों साधना


छल, कपट, क्षद्म का सर्वत्र बोलबाला

पहल भी कैसे हो वैतरणी है लांघना

कल्पना की डोर पर नर्तक चाहत मोर

प्रणय का प्रभुत्व ही सर्वश्रेष्ठ जागना


कहां गहन डूब गए रचना पढ़ते-पढ़ते

मढ़ते नहीं तस्वीर यूँ यह है भाव छापना

अभिव्यक्तियाँ सिसक जब मांगे सम्प्रेषण

निहित अर्थ स्वभाव चुहल कर भागना।


धीरेन्द्र सिंह

15.11.2025

23.15